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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
आकाशका संयोग सो तौ असमवायिकारण कहिये सहकारी कारण अर आकाश समवायिकारण इनितें दिशा देश आदिका अविभाग करि उपजता होय है सो सर्व हीकरि तौ सुन मैं न आवै, नियमरूप न्यारे न्यारे दिशा देशमैं तिष्ठते पुरुषनिकरि सुनिये है। तैसे ही नित्यपक्षमैं अभिव्यज्यमान कहिये प्रकट होता सुनिये है, ऐसैं समान भया । बहुरि अभिव्यक्तिका संकरपणां भी नही है जातें यहभी दोऊ पक्षमैं समान है । सोही कहिये है:-जैसे तालु आदिका संयोग” जो वर्ण जिस” उपजै है सो तिसहीतै उपजै है अन्यका संयोग” अन्य नाही करिये है, तैसे ही अन्यध्वनिका अनुसारी तालु आदि हैं ते अन्यध्वनिका आरंभ नाही करै हैं । तातें संकरपणांका दोष बतावै तौ यहभी समान ही आवैहै । तातैं उत्पत्तिपक्ष अर अभिव्यक्तिपक्षविर्षे समानपणां होतें एक ही पक्षविर्षे प्रश्नका अवसर नाही, ऐसैं मीमांसक कहै है हमारा कहनां सर्वही निश्चित है । बहुरि किछू और कहै है;-जो अक्षरनिकै अर तिनिस्वरूप जो शब्द ताकै कूटस्थस्वरूप नित्यपणां भी मति होहु तौऊ वेदकै अनादिपरंपराकरि चल्या आवनेंतें नित्यपणां है, तातैं आगमका पौरुषेय लक्षण किया ताकै अव्यापकपणां दूषण आवै है। बहुरि यह प्रवाहकरि परंपराकरि नित्यपणां है सो अप्रमाण स्वरूप नाही है, अबार भी याका कर्ता कोई दिखै नांही । बहुरि अतीत अनागत कालविर्षे याका कर्ताका अनुमान करावनेवाले लिंगका अभाव है । जे साध्य साधन अतीन्द्रिय हैं तिनिका संबंध सदाकाल अतीन्द्रिय है ताकू इन्द्रियनिकार ग्रहण करनेंयोग्यपणांका अभाव है, जानैं ऐसैं कह्या है जो लिंग प्रत्यक्षकरि ग्रहण होय सो ही है तिसहीतैं अनुमान होय है। ग्रहण किया है संबंध जानें ऐसे पुरुषकै एक देशके देखनेंतें जो पदार्थ इन्द्रियनितें न भिड़े ऐसा