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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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बहुरि विशेष कहैं हैं—जो प्रधान कोई प्रकारकरि सिद्ध होय तो कही बात सारी बणे सो प्रधानको तौ सिद्धी ही होय नाही, काहू प्रमाण करि निश्चय किया जाय नाही । इहां सांख्य कहै है—जो कार्य जगतमैं होय है तिनिकै एक अन्वय देखिये है तातें कोई एक कारण करि उपजबापणां माननां, बहुरि जे महत् अहंकारादिक कार्य है तिनिके भेदनिका परिणाम देखिये है । तातें इनि दोऊ हेतुनितें जैसैं घट घटी सरावा आदिकै एक माटीका अन्वय अर भेदपरिणाम देखिये है ताका कारण एक मृत्तिका दीखै है तैसैं महत् आदि कार्यनिकै एक अन्वय देखनेंतें बहुरि भेदनिका परिणाम देखनेंतें एकरूप कारण प्रधान मानिये है, ऐसैं प्रधानकी सिद्धि है। तहां आचार्य कहैं हैं—यह चर्चा तो सुन्दर नाही जातें सुख दुःख मोहरूपपणां करि घट आदिकै अन्वयका अभाव है, जडकै चेतनका अन्वय होय नाही सुखादिकका अन्वय तौ अन्तरंग तत्व ही कै पाइये है तातै सर्व ही कार्यनिकै तौ एक अन्वय बण्यां नाही । इहां सांख्य कहै—जो अन्तरङ्ग तत्वकै तौ सुख आदिका परिणाम नाही अर सुख दुःखादिकरूप परिणामता जो प्रधान ताके संसर्गतै आत्माकै भी ते प्रतिभासे है । तहां आचार्य कहैं है—यह भी बणें नाही, जो प्रतिभासमान वस्तु नाही ताकै भी संसर्गकी कल्पना कीजिये तो तत्वकी संख्याका नियमका निश्चय नाही होय, सो कही है, ताका श्लोकका अर्थः__ जो संसर्ग ही अविभाग कहिये अभेद मानिये जैसैं लोहके गोला
कै अर अग्निकैं है तैसैं तो सर्व वस्तुकै भेद अभेदकी व्यवस्था कहिये नियम ताका उच्छेद होय जाय, ऐसैं तत्वकी संख्याका नियम ठहरै १ संसर्गादविभागश्चेदयोगोलकबह्निवत् ।
भेदाभेदव्यवस्थैवमुत्पन्ना सर्ववस्तुषु ॥१॥ इति ।