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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
नांही । बहुरि जो परिणामनामा हेतु कह्या सो एक स्वभावरूप मांटीतें भये जे घट घटी सरावा आदि तिनिवि भी है, बहुरि अनेक स्वभावरूप जे पट कुटी मुकुट शकट, आदि तिनि विौं भी पाइये है, यातें हेतु अनैकान्तिक है; तातै प्रधान जो प्रकृति ताकी सिद्धि नांही है, सो ऐसैं प्रधानका ग्रहणके उपायका असंभव है । अथवा संभवै तौऊ तिस” कार्यकी उत्पत्तिका अयोग है । सांख्यनैं जो कह्या ताकी दोय आर्या है, 'तिनिका अर्थः-प्रकृतिौ तौ महान् होय है जो उत्पत्तिते लगाय नाश ताई स्थायी रहै ऐसी बुद्धिकुं महान् कहै है, बहुरि तिस महान्त अहंकार होय है, बहुरि तिस अहंकारतें षोडश गण होय है (ते श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा घ्राण ये तो पांच बुद्धि इन्द्रिय, अर पायु उपस्थ वचन पग हाथ ये पांच कर्म इन्द्रिय हैं, एक मन है, रूप रस गंध शब्द स्पर्श ये पांच तन्मात्रा हैं ऐसैं सोलह भये ) बहुरि तिस षोडशगणतैं पांच जे तन्मात्रा तिनि” पांच भूत उपसें हैं, ते कहिये हैं,—रूप” तौ अग्नि होय है, रस तैं जल होय है गंधर्तं भूमि होय है, शब्दतै नभ होय है, स्पर्शरौं पवन होय है; ऐसैं सृष्टिका क्रम है। तहां मूल प्रकृति तौ विकृति रहित है ( विकार रहित है ) अर याका कोई कारण भी नाही, बहुरि महत् आदि हैं ते प्रकृतिकी सात विकृति हैं अर सोलह गण है सो विकार है; ऐसैं विकार हैं ते सात अर सोलह तेईस हैं । बहुरि पुरुष है सो विकृति भी नांही अर प्रकृति भी नांही। ऐसैं पचीस तत्व
१ यदुक्तं परेण-प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि षोडशकारपंचभ्यः पंच भूतानि ॥१॥ वचनिकाकी प्रतिमें दो आयाओंका उल्लेख है परन्तु मुद्रित संस्कृत प्रतिमें उपरिलिखित सिर्फ एक यही आर्या है, दूसरी नहीं है।