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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
यज्ञादिक तिनिविषै चोदना कहिये वेदवाक्य में प्रेरणा तिष्ठे है सो ही हमारे प्रमाण है, ऐसा कहना तौ बाध्या गया । बहुरि अतीन्द्रियार्थ प्रत्यक्ष करनें विषै समर्थ जो पुरुष सर्वज्ञ ताका सद्भाव होतैं तिसके वचनकै भी चोदनाकी ज्यों अर्थ निश्चय करावनेंवालापणांकरि प्रमाणपणांतैं यह वचन तौ वेदकै पुरुषका कियापणांका अभावकी सिद्धिका प्रतिबंधक होय, भावार्थ - सर्वज्ञ ठहऱ्या तब अर्थका निश्चय ताका वचनसूं होयहीगा अर वेदकूं अपौरुषेय माननां वृथा होयगा । बहुरि कहै - जो वेदका वक्ताकै अल्पज्ञपणां होतैं भी यथार्थ व्याख्यानकी परंपराकरि संप्रदायका संतानका विच्छेद नाही होनेंकरि वेद सत्यार्थ ही मानिये है ? ताकूं कहिये ऐसें नांही जातैं अल्पज्ञकै अतीन्द्रिय पदार्थनिविषै निःसन्देह व्याख्यानका अयोग है, जैसे अंधाकरि रौंच्या जो अंधा ताकरि अनिष्ट देशकूं छोडि वांछित देशका मार्गविषै प्राप्त करनां बगैं नांही । बहुरि किछू विशेष कहै है— जो अनादितैं व्याख्यानकी परं - परातैं चल्या आया कहै तौऊ वेदका अर्थकं संबंधकूं ग्रहणकरि पाछै भूलनेंतैं तथा वचनकी प्रवणता बिना औरसूं और अर्थ कहनेंतैं तथा खोटे अभिप्रायतें व्याख्यानका अन्यथा करनेंतैं निर्बाध तत्वका प्रकाशनका अयोगतैं अप्रमाणता ही होय । सो ही देखिये हैं; —— अबारके • पंडित भी ज्योतिषशास्त्रादिकविषै रहस्य यथार्थ जानते भी खोटे अभिप्रायतैं अन्यथा व्याख्यान करें हैं । बहुरि केई जानते भी वचनकी प्रवीणता विना नीकेँ कहें नांही जानैं ते अन्यथा उपदेश करें हैं । बहुरि केई वाच्यवाचकका संबंध भूलिकरि अयथार्थ कहैं हैं । जो ऐसैं न होय तौ वेदके वाक्यार्थविषै भावना विधि नियोगरूप अर्थका अन्यथापणांकरि विवाद कैसैं होय । भट्टके शिष्य तौ भावनांकूं वाक्यार्थ मानें हैं । वेदान्तीविधिकूं वाक्यार्थ मानैं हैं । प्रभाकरवाला नियोगकूं वा
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