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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
ही है है । बहुरि शब्द हैं ते भी न्यारे न्यारे संस्कारक जे पवन तिनिकरि संस्कार करने योग्य नांही हैं जातैं समान इन्द्रियकरि ग्रहण करने योग्य समान धर्म स्वरूप समान क्षेत्र मैं तिष्ठे, ऐसे होतैं एककाल इंद्रियकरि संबंधरूप होय हैं जैसे घट आदि होय हैं । बहुरि कहै - जो उत्पत्तिपक्ष मैं भी यह दोष समान है सो ऐसैं नांही है जातैं मांटीके पिंड अर दीपक इनके दृष्टान्तकार कारक व्यंजक पक्षमैं विशेषकी सिद्धि है । विद्यमान घटका मांटीका पिंड तौ कारक है अर दीपक
ताका व्यंजक है, परन्तु ऐसैं विशेष है- - जो एक घट करनेंकै अर्थि लिया एक मांटीका पिंड सो तौ एक ही घटकूं करै है अन्यकूं नांही करे है, अर दीपक एक घटके प्रकाशनेकै आर्थि जोया सो तिस घटकूं प्रकाशै अर अन्यकूं भी प्रकारौ । तेसैं शब्दका व्यंजक एक पवन सो I एककाल प्रकाशै तब सर्व शब्दका श्रवण एककाल ही चाहिये सो नांही है | यह दूषण है सो अभिव्यक्तिपक्षमैं आवै अर उत्पत्तिपक्षमैं
तौ नांही आवै । तातैं बहुत कहनेकरि पूरी पड़ो— शब्दकै उत्पत्ति पक्ष ही माननां योग्य है ।
बहुरि और कला — जो प्रवाहके नित्यपणांकरि वेदकै अपौरुषेयपणां है, तहां दोय पक्ष पूछने ? शब्दमात्रकै अनादि नित्य*पणां है कि केई विशिष्टशब्दनिकै अनादि नित्यपणां है ? जो कहैगा शब्दमात्रक है तौ जे शब्द लौकिक हैं ते ही वेदके हैं, तातैं यह कहनां तौ अल्प ही भया जो वेद तौ अपौरुषेय है अर - लौकिक शब्द अपौरुषेय नाही ? सर्व ही शास्त्र निकै अपौरुषेयता आवेगी । बहुरि कहैगा - जो विशिष्ट अनुक्रमरूप चले आये हैं ते ही शब्द अनादि नित्यपणांकरि कहिये हैं, तौ इहां भी दोय पक्ष पूछनें - ते शब्द जिनिका अर्थ जाननें मैं आया ऐसे हैं कि जिनिका