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१५० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनाही । हमनें तौ ऐसे कया है—जो वेदके व्याख्यान करनेवालेनिकै अतीन्द्रिय पदार्थनिका देखनां आदि गुणनिका अभाव होतें दोषनिका अभाव नाही, ताक् वेदविौं भी दोषनिका सद्भाव आवै, तब प्रमाणपणांका निश्चय नाही, ऐसैं कहैं हैं । तातैं अपौरुषेयपणां होतें भी वेदकै प्रमाणपणांका निश्चयका अयोग है । तातैं इस अपौरुषेयपणां रूप वेद करि हमारा आगमके लक्षणकै अव्यापीपणां अर असंभवीपणां नांही है। यातें बहुत कहनेकरि पूरी पड़ो ॥ ९४ ॥ ___ आरौं बौद्धमती कहै है जो शब्दकै अर अर्थक संबंधका अभाव है ता” शब्द अन्यका निषेधमात्र कहनेवाला है, नाम जाति गुण क्रिया आदि स्वरूप शब्दका अर्थ नाही है ताते शब्दकै आप्तप्रणीतपणां होतें भी यातें सत्य अर्थका ज्ञान कैसैं होय ? ऐसें तर्क होतें सूत्र कहैं हैं;
सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ॥९५ ॥ ___ याका अर्थ—सहज कहिये स्वभावभूत योग्यता कहिये वस्तुस्वरूप विर्षे पुरुषका अभिप्रायका नियम "जैसैं पृथु वृघ्नोदर आकाररूप मांटीका रूप है सो घट है" ऐसैं संकेतके वश” 'हि' कहिये प्रकटपण ते पूर्वोक्त आप्तप्रणीत शब्द अर आदि शब्दतै अंगुली आदिकी समस्या हैं ते वस्तुकी प्रतिपत्ति कहिये ज्ञान ताकू कारण हैं ॥ ९५ ॥ आज याका उदाहरण कहैं हैं;
यथा मेवादयः सन्ति ।। ९६ ॥ याका अर्थ-जैसैं मेरु आदिक हैं ते हैं । इहां बौधमती कहै है-जो जे ही शब्द तौ अर्थके होते देखे ते ही शब्द अर्थक अभाव