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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
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वेदमैं कहे हैं, बहुरि अनेक पदनिका समूहरूप न्यारे न्यारे छंदरचना वेदमैं देखिये है, बहुरि फलके अर्थी जे पुरुष तिनिकी प्रवृत्ति निवृत्तिके कारण स्वरूप वेदमैं कहे हैं ते सुनिये हैं " स्वर्गका वांछक अग्निष्टोमकरि पूजै" इत्यादिक तो प्रवृत्तिके वाक्य, बहुरि "कांदा न खाइये, दारू न पीवै गऊकू पग” स्पर्शनां नाही," इत्यादि निवृत्तिके वचन वेदमैं हैं जैसैं मनु ऋषिके सूत्रमैं हैं तैसैं, तातै वेद है सो पुरुषका ही किया है। ऐसा भी वचन हमारे आचार्यनिका है। बहुरि अपौरुषेयपणां वेदकै होतें भी प्रमाणता नांही वर्षे है जाते प्रमाणपणांका कारण जे गुण तिनिका वेदवि अभाव है । बहुरि मीमांसक कहै है जो गुणनिकरि किया ही तौ प्रमाणपणां नाही, दोषका अभावकरि भी प्रमाणपणां है, सो दोषका आश्रय पुरुष है ताकै कर्त्तापणांका अभाव होते भी वेदकै प्रमाणपणां निश्चय कीजिये है, गुणके सद्भावहीरौं नाही है सो ही हमारै कही है, ताका श्लोकका अर्थ-शब्दकै विषै दोष उपजै है सो तौ वक्ताकै आधीन है ऐसा निश्चय है, बहुरि कहूं दोषका अभाव है सो गुणवान वक्तापणांकै आर्धान है, जातै वक्ताके गुणनिकरि दूर किये जे दोष ते फेरि शब्दमैं आवे नाही, बहुरि यह पक्ष समीचीन है जो वक्ताका अभावकरि तिस वक्ताकै आश्रय जे दोष ते शब्दमैं न होंहि । ताका समाधान आचार्य करें हैं जो यह कहनां भी अयुक्त है जातें हमारा अभिप्राय मीमांसकनैं जाण्यां नाही, जातें हमनें तौ वक्ताकै अभाव होतें वेदकै प्रमाणपणांका अभाव है ऐसैं कह्या
(१) शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्ताधीन इति स्थितम् ।
तदभावः क्वचित्तावगुणवद्वक्तृकत्वतः ॥१॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रांत्यसंभवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ॥२॥