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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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ही विचारनां, गऊकी व्यावृत्तितैं अगऊका निश्चय होय अगऊकी व्यावृतितैं गऊका निश्चय होय । बहुरि क है— जो अगऊ ऐसैं इहां गोशब्दका अर्थ विधिरूप और ही है, तौ अपोहही शब्दार्थ है ऐसा कहनां विगडेगा । तातैं कही जो युक्ति ताकरि विचाय हुवा अपोहका अयोग है ॥ तातैं अन्यापोह शब्दका अर्थ नांही है यह निश्चय भया जो सहज योग्यताके वशर्तें शब्दादिक हैं ते वस्तुकी प्रत्तिपत्तिके कारणा हैं ॥ ९६ ॥ इहां श्लोक:
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स्मृतिरनुपहतेयं प्रत्यभिज्ञानवज्ञा प्रमितिनिरतचिन्ता लैंगिकं सङ्गतार्थम् । प्रवचनमनवद्यं निश्चितं देववाचा रचितमुचितवाग्भिस्तथ्यमेतेन गीतम् ॥
याका अर्थः—इस अधिकारविषै निर्वाध तौ स्मृतिप्रमाण कला, बहुरि आदर योग्य प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कह्या, बहुरि प्रमिति कहिये प्रमाणका फलरूप ज्ञान तिसविषै लीन ऐसा चिंता कहिये तर्क प्रमाण कला,.. बहुरि यथार्थ है अर्थ जामैं ऐसा लैंगिक कहिये अनुमान प्रमाण कह्या, बहुरि निर्दोष प्रवचन कहिये आगम प्रमाण कह्या । ये पांच परोक्षप्रमाणके भेद अकलंकदेव आचार्यके वचनकरि निश्चय किया हुवा माणिक्यनंदिनैं उचितवचन करि रच्या हुवा मैं अनन्तवीर्य आचार्य यहु. यथार्थ गाया है ॥ १ ॥
छप्पय
स्मृति वरनीं निरदोष तथा प्रतिभिज्ञा सांची, तर्क यथारथरूप बहुरि अनुमा शुभ वांची ।