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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
देशान्तरविर्षे वेदका कर्ता अष्टकदेव आदिका बौद्धमती आदिनिकै अंगीकार है । बौद्धमती वेदका कर्ता अष्टकदेवकू मानें है। वैशेषिकमती ब्रह्माकू मानें है । जैनी कालासुरकू मानें हैं। बहुरि जो आरभी कह्या-वेदका अध्ययन वेदका अध्ययन पूर्वकही है इत्यादिक, सो भी विपक्ष ने पुरुषके किये शास्त्र तिनिका अध्ययन ताविौं भी समान है । जैसैं भारतका अध्ययन है सो सर्वही गुरुके अध्ययनपूर्वक है जाते. तिसके अध्ययन पद करिही वाच्य अर्थ है जैसैं अबार अध्ययन कीजिये है ऐसैं समान जाननां । बहुरि और कह्या-जो वंदका कर्तीका संप्रदायमैं कथन नाहीं किसीकू यादि नाही जो फलाणे कर्ताका किया है ऐसा ही संप्रदाय चल्या आवै है ताका विच्छेद भी नाही हुवा । तहां कहिये-जो इस हेतुमैं जीर्णकूप आरामवन आदिकरि व्यभिचारके दूर करनेकू संप्रदायका न होनां ऐसा विशेषण किया तौऊ विशेष्य जो कर्त्ता यादि नांही ऐसा है सो विचार किये याका ही अयोग है तातैं यह हेतु नाही। यामैं तीन पक्ष पूछिये-कर्ताका यादिपणां वादीकै नांही है कि प्रतिवादी मैं नांही है कि सर्वही मैं नांही है ? जो वादिकै नांही है तौ यामैं दोय पक्ष पूछिये—कर्ताका स्मरणका अभाववादीकू का नांही दीख्या तातें है कि कर्त्ता के अभावही है, जो कहै क- दीख्या नाही तातें है तो पिटकत्रय बौद्धका ग्रंथ है; ज्ञानपिटक, वंदनपिटक, चैत्यपिटक, तिनिक भी अपौरुषेयपणां आया । बौद्धकै शिष्यनिभी तिनिका कर्ता देख्या (२) भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् ।
तदध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथाः॥ इस श्लोकका अर्थ वचनिकामें लिखातो है परन्तु जैसे अन्यत्र “ ताका श्लो. कका अर्थ" ऐसा लिखकर वादमें लिखा है वैसे नहीं लिखा है।