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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला
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परोक्ष ताका ज्ञान होय है सो अनुमान है। बहुरि वेदके कर्ताकी अर्थापत्ति प्रमाणतें भी सिद्धि नांही होय है जातें जाके होते अवश्य अन्य पदार्थ आय प. तिसतै अर्थापत्ति होय सो अनन्यथाभूत अर्थका अभाव है । बहुरि उपमान प्रमाणभी वेदका कर्ताका साधक नांही जातै उपमान उपमेय दोऊ ही प्रत्यक्ष नांही । यातें केवल अभाव प्रमाण ही रह्या सो वेदका कर्ताका अभावहीकू साधै है । बहुरि ऐसैं नांही कहनां-जो पुरुषका सद्भावका साधनां जैसे दुःसाध्य है तैसैं याका अभावका भी साधनां दुःसाध्य है, याः संशयकी आपत्ति आवै जातें तिसके कर्ताका अभावके साधकप्रमाण सुलभ हैं । अबार कालविषै तौ तिसके अभावविर्षे प्रत्यक्ष प्रमाण साधक है । अतीत अनागत कालविर्षे अभावका साधक अनुमान प्रमाण है । इहां अनुमानके दोय प्रयोगके श्लोक हैं, तिनिका अर्थ-अतीत अनागत काल है ते वेदके कर्तीकरि रहित हैं जातें 'काल' ऐसा शब्दकार कहनेयोग्य अर्थ हैं जैसा अवार काल तैसे ही ते भी काल हैं ॥ १॥ बहुरि कोई पूछै वेदका पढनां कैसे है ? तौ ताकू कहिये-जो वेदका पढ़ना है सो सर्व ही वेदके पढ़नेपूर्वक है पहले पढ़े हैं ते अन्यकू पढ़ाऐं हैं, ऐसे ही परिपाटी चली आवै है जातें " वेदका अध्ययन" ऐसे पदकरि वाच्य कहिये कहने योग्य अर्थ है जैसैं अबार कोई पढ़े है सो ऐसे ही पढ़नेकी परिपाटी है ॥२॥ बहुरि तैसैं ही अन्य प्रयोग कहै है;-वेद है सो (१) तथा च
अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ । कालशब्दाभिधेयत्वादिदानीन्तनकालवत् ॥१॥ वेदस्याध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं तथा ॥२॥