________________
हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
१३५
कि पहले सुन्यां था सो ही यह शब्द है, प्रत्यभिज्ञान इहां भी सुलभ है । इहां संकेतका उदाहरण ऐसा- - जो गोशब्दका संकेत खुर ककुद लांगूल सास्नादिक सहित अर्थ विषै है । बहुरि अक्षरनिकै अथवा शब्दकै नित्यपणां होतैं सर्वपुरुषनिकरि सर्वकालमैं सुननेका प्रसंग आवै है, ऐसा भी न माननां जातें शब्दकी अभिव्यक्ति कहिये श्रवणमैं
-
आवै ऐसा प्रगट होनां सदाकाल नांही संभव है । बहुरि याका असंभवका कारण यहु — जो शब्द के अभिव्यंजक कहिये प्रगट करनेवाले पवन हैं तिनिकै अक्षर अक्षर प्रति न्यारा न्यारा पणां है तालुवा होठ आदि संबंधी पवन न्यारे न्यारे हैं सो वक्ता के प्रेरें पवन चलें तब अक्षर प्रगट होय । बहुरि ऐसा नांही जो ये पवन नांही बनैं हैं जातैं प्रमाणतैं पवन प्रसिद्ध है, सो ही कहिये है — जे वक्ताके मुखकै निकटदेशवर्ती पुरुष हैं ते तौ अपना स्पर्शनप्रत्यक्ष प्रमाणकरि शब्दके व्यंजक पवननिकूं ग्रहण करैं ही हैं जानें ही हैं, बहुरि वक्ताके दूरदेशवर्ती हैं ते मुखकै समीप तिष्ठते जे तूल कहिये रज फूंफदा सूक्ष्म तिनिके चलनेंतैं अनुमानरूप जानें हैं । बहुरि सुननेवालाका कानके प्रदेशनिविषै शब्द सुननेंकी अन्यथा अनुपपत्तितैं अर्थापत्तिप्रमाणतें भी निश्चय कीजिये है—जो पवन शब्दकूं न प्रेरै तौ श्रोताका कान तांई कैसैं जाय । तातैं पवनतैं शब्दके अक्षरनिकी अभिव्यक्ती होय है तातैं सर्वकाल सर्वकार नांही सुनिये है । बहुरि अभिव्यक्तिपक्ष मैं सर्वकरि सर्वकाल सुनेंनका प्रसंगरूप दोष बतावै तौ उत्पत्तिपक्षमैं भी ये दोष आवैं हैं: भावार्थ-मीमांसक शब्दकूं नित्य मानैं है अर अभिव्यक्ति सदा नांही मानें है । ताकी पक्ष अनित्यपक्षकार उत्पत्ति माननेवाला जो नैयायिक सो दोष बतावै तौ ताकूं मीमांसक कहै है— जो अनित्य पक्षमैं ये ही दोष बराबर आ हैं । सो ही कहै है—यह शब्द है सो पवन अ
1