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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
बहुरि आप्तशब्द के ग्रहणतें मीमांसक आगमकूं अपोरुपैय मानें हैं ताका निराकरण है । बहुरि अर्थज्ञान पदकरि अन्यापोह कहिये अन्यके निषेधकूं बौद्धमती शब्दका अर्थ मानें हैं ताका निराकरण है, तातैं अन्यापोहज्ञान आगम प्रमाण नांहीं । तथा शब्दका केई ऐसा अर्थ मानें हैं जैसे काइनें कह्या जो 'घट ल्याव' तब ताकूं सुणि ऐसा विचारै जो जल भरनेकै आर्य घट मंगावै है, यह वाक्य ऐसेंसूचे है, ऐसा अभिप्राय कल्पि घट ल्यावै; सो ऐसा अभिप्रायकै अर्थपणांका निराकरण है, तातैं अभिप्राय सूचन आगमप्रमाण नांही ।
अब मीमांसकमतका विशेष जो भट्टमत तिसका पक्षी कहै है;जो यह आगमका लक्षण असंभवी है जातैं शब्द के नित्यपणां है तातैं आप्तका कह्यापणांका अयोग है । बहुरि शब्दकै नित्यपणां है जातें याके अवयव जे अक्षर तिनिकै व्यापकपणां है सर्वदेशमैं अक्षर व्याप रहे हैं, भर नित्य हैं तातैं शब्द भी नित्य ही है । बहुरि अक्षरनिका व्यापकपणां असिद्ध नांही है, एक जायगां उच्चारणरूप भया जो गौशब्दका गका - रादिक अक्षर सो प्रत्यभिज्ञानकरि अन्य देशविषै भी ताका ग्रहण होय है, जो एकदेशमैं सुन्यां था गकारादिक सो ही अन्यदेश मैं सुन्यां तब जान्यां जो सो ही यह गकारादिक है । बहुरि ताका नित्यपणां तिस प्रत्यभिज्ञानकरि ही निश्चय भया जातें कालान्तरकैविषै भी तिस ही गकारादिकका निश्चय होय है । बहुरि इस हेतुतैं भी नित्यपणां निश्चय कीजिये जो शब्दकै संकेतकी नित्यपणां विना अप्राप्ति है सो ही कहिये है; — एक शब्दका संकेत ग्रहण किया ऐसा शब्द अन्य ही श्रवण मैं आया मानिये तौ इस विना संकेत ग्रहण किये शब्द अर्थकी प्रतीतिरूप ज्ञान कैसैं होय ? जो इस शब्दका यह ही अर्थ है ? अरु अर्थरूप प्रतीति लिये ज्ञान होयही है । सो इहां भी संकेत मैं ऐसा जानिये है