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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
पूर्वै प्रवर्ते, साध्यतैं पीछें दीखै, साध्यकै साथि ही रहै, ऐसें छह भेद हैं । इहां सूत्रविषै समास ऐसें करनां - पूर्व, उत्तर, सह, इनि तीन शब्दनिका द्वन्द्वसमासकरि पीछें चर शब्द करनां सो द्वंद्वतैं चरशब्द प्रत्येककै लगावणां, तब पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर ऐसा होय । पीछें व्याप्य आदिकार द्वंद्व करनां तातैं पूर्वोक्त अर्थ भया ॥ ५४ ॥
इहां सौगत कहिये बौद्धमती सो कहै है – विधिका साधन दोय प्रकार ही है, स्वभाव अर कार्य ऐसें । बहुरि कारणकै तौ कार्य अविनाभावका अभाव है तातैं साध्यका लिंग नांही जातैं कारण हैं ते कार्यसहित अवश्य होय नाही ऐसा वचन है । बहुरि इहां कहोगे जो - जा कारणका सामर्थ्य काहूतें रुकैं नांही ऐसा कारण है सो कार्य प्रति गमक होय है सो ऐसा कहनां न बनेगा जातें सामर्थ्य तौ इन्द्रियगोचर नांही जो कारण मैं विद्यमान भी है तौ ताका निश्चय होय सकै नाही ? ताका समाधान आचार्य करें हैं—ऐसा कहनां विना विचारे है, ऐसें दिखावनेकूं सूत्र कहैं हैं;--
रसादेक सामग्र्यनुमानेन रूपानुमानामिच्छाद्भरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणान्तरावैकल्ये ॥ ५५ ॥
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याका अर्थ — आस्वादमैं आया जो रस तातैं तिसके उपजावनहारी फल आदि सामग्री ताका अनुमान कीजिये है । पीछें तिस अनुमानतें रूपका अनुमान होय है ऐसैं मानता जो बौद्धमती ताकरितानैं किछु कारणकूं हेतु मान्यां ही ? जिस कारणविर्षे सामर्थ्यका रोकनेवाला न होय तथा सहकारी अन्यकारणका विकलपणां न होय, समस्त सहकारी आय मिलै तिस कारणकै कार्य जो साध्य ता प्रति गमकपणां होय है, जातैं पहला रूपका क्षण है सो अपनां सजातीय जो