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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
- सहचर, इनि भेदनि । इहां स्वभाव आदि पदनिका द्वंद्व समास है, तिनिका अनुपलंभ ऐसें पीछें षष्ठीतत्पुरुष समास है ॥ ७३ ॥ आगैं स्वभावानुपलंभका उदाहरण कहैं हैं;
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नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥ ७४ ॥ याका अर्थ-या पृथिवीतलविषै घट नांही है जातैं अनुपलब्धि है, दीखै नांही है । इहां कोई पिशाच काहूकूं दीखै नांही तथा परमाणु आदि सूक्ष्म वस्तु काकूं दीखें नांही अर तिनिका नास्तित्व है नांही तातें हेतुकै व्यभिचार आवै है तो ताके परिहारकै अर्थ इहां उपलब्धिलक्षण प्राप्तपणां कहिये दृश्यपणां जामैं है अरु दीखै नांही है, हेतुका ऐसा विशेषणकरि लेणां । इहां केवल भूतल घटरहितस्वभाव है सो ही अनुपलब्धि है सो प्रतिषेधस्वरूप जो घट ताकै अविरुद्ध है सो 'घटके प्रतिषेधकं साधै है, तातैं स्वभावानुपलंभ हेतु भया ॥ ७४ ॥ आगैं व्यापकानुपलब्धि हेतुकूं कहें हैं;
नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥ ७५ ॥
याका अर्थ — इस क्षेत्र मैं शीसूं नांही है जातैं वृक्षकी अनुपलब्धि हैवृक्ष दीखै नांही । इहां वृक्ष व्यापक है ताके अभाव होतैं तिसके व्याप्य शीसूं है ताका भी अभाव है सो वृक्षकी अनुपलब्धि शीसूंके प्रतिषेधकूं साधै है, तातैं व्यापकानुपलब्धि हेतु है ॥ ७५ ॥
आ कार्यकी अनुपलब्धिकूं कहैं हैं; - नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धेः
॥७६॥
याका अर्थ — इस जायगां नांही रुकै है सामर्थ्य जाका ऐसी अग्नि नांही है जातै धूमकी अनुपलब्धि है । इहां अग्निका कार्य धूम है सो अग्निका विशेषण किया जो अप्रतिबद्ध सामर्थ्य सो इस विशेषणतैं घूम