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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
ऐसी-शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुसूल इत्यादि, सो इहां काहू. स्थास देख्या तब जान्यां जो इहां पहले शिवक भया था ॥ ८६ ॥
सो इस हेतुकी संज्ञातौ कही अर अन्तर्भाव कौनमैं भया ऐसी आशंका हो” कहैं हैं;
कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ८७ ॥ .. याका अर्थ- यह कार्यका कार्य है सो अविरुद्ध कार्योपलब्धिविर्षे अंतर्भाव करनां । इहां सूत्रविर्षे 'अन्तर्भावनीयं' ऐसा उपरले सूत्र" संबंध करनां । पहले शिवककार्य छत्रक भया ताका कार्य स्थास भया सो याकू अविरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत करनां ।। ८७ ॥
आरौं दृष्टान्तद्वारकरि दूसरा उदाहरण कहैं हैं;
नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात्, . कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥ ८८॥
याका अर्थ-इस पर्वतकी गुफाविर्षे मृगका क्रीडन नांहीं है जातें नाहर बोले है । इहां कारणविरुद्ध कार्य है सो विरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत करनां । यह सूत्र पहले सूत्रका दृष्टांतरूप है, जैसैं इहां अन्तर्भाव तैसैं पहले सूत्रमैं जानना जातै मृगक्रीड़ाका कारण मृग है ताका विरोधी मृगारि कहिये नाहर है तिसका कार्य संशब्दन कहिये बोलना है सो मृगकी क्रीड़ाके अभावकू साधै है, तातें हेतु है। जैसैं विरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत होय है तैसैं पहले कह्या सो तिसमैं अन्तर्भूत जाननां ।। ८८॥ • आ बाल कहिये अल्पज्ञ ताकै ज्ञान करनेकै आर्थ पांच अवयवनिका प्रयोग है ऐसैं कह्याथा सो जो व्युत्पन्न होय ज्ञानवान होय न्याय