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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला |
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अनुपलब्धि हेतु है सो दुःखके सद्भावकूं इष्टसंयोगका अभाव साधै है, तातैं विरुद्धकारणानुपलब्धि हेतु भया ॥ ८३ ॥ आगैं विरुद्धस्वभावानुपलब्धिकूं कहैं हैं; - अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः ॥८४॥ याका अर्थ — वस्तु है सो अनेकान्तस्वरूप है जातैं एकांतस्वरूपकी अनुपलब्धि है । इहां अनेकान्तात्मकका विरोधी नित्य आदि एकान्त है सो लेनां बहुरि तिसका ज्ञान नांही लेनां जातैं एकान्तका ज्ञानकै तौ मिथ्याज्ञानरूपपणांकरि उपलभका संभव है । एकान्तका स्वरूप अवस्तुभूत है ताकी अनुपलब्धि हेतु है सो वस्तुकूं अनेकान्तस्वरूप साधै है, तातैं विरुद्धस्वभावानुपलब्धि हेतु भया ॥ ८४ ॥
आगे पूछे है कि व्यापकविरुद्ध कार्यादिकका बहुरि परंपराकरि अविरोधी कार्यादि लिंगनिका बहुलताकरि उपलंभका संभव है सो ते भी आचार्य उदाहरणरूप किये नांही ? ऐसी आशंका होतैं सूत्र कहैं हैं;
परम्परया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ||८५॥ याका अर्थ — परंपराकरि जे साधन कहिये हेतु संभवते होंहि ते इन कार्य आदि हेतुनिविषै ही अन्तर्भाव करनें ॥ ८५ ॥
आगैं तिस ही हेतुके उपलक्षणकै अर्थ दोय उदाहरण दिखावैं हैं;अभूत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥ ८६ ॥
याका अर्थ — इस चाकविर्षे शिवक पहले हुवा है जातैं स्थास देखिय है । इहां ऐसा भावार्थ- जो कुंभार चाकपरि माटीका पिंड धरि वासण बणावै है तब पिंडके आकार अनुक्रमतें करे है, तिनकी संज्ञा हि. प्र. ९