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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितउपलंभानुपलं भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूह इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ॥७॥
याका अर्थ-उपलंभ तौ प्राप्ति अनुपलंभ अप्राप्ति ये दोऊ हैं निमित्त जाकू ऐसा व्याप्तिका ज्ञान सो ऊह कहिये तर्कप्रमाण है । तहां यह याकै हो” संतें ही होय ऐसा तौ अन्वय, बहुरि यह न होय तौ नहीं होय ऐसा व्यतिरेक, ऐसैं दोऊनितें व्याप्तिज्ञान है । इहां उपलंभ तौ प्रमाणमात्रका ग्रहण करनां । जो प्रत्यक्षहीकू उपलंभ शब्दकरि ग्रहण कीजिये तो अनुमानके विषय जे साधन तिनिविर्षे व्याप्तिका ज्ञान न होय । इहां कोई कहै-व्याप्ति तो सर्वोपसंहारवती है सर्व क्षेत्र-कालका संग्रहकरि प्रतीति कीजिये है सो अतीन्द्रिय ही साध्य होय अर ताका साधन भी अतीन्द्रिय होय तौ तिस साध्यकरि साध. नकै व्याप्ति कैसे जानी जाय ? ताका समाधान-जो ऐसैं नहीं है, जैसे प्रत्यक्षके विषय साध्य-साधन होय तिनिविर्षे व्याप्ति जानिये है तैसैं ही अनुमानके विषय साध्य-साधनकैविधैं भी व्याप्ति जाननेका अविरोध है । जातें व्याप्तिका ज्ञान जो तर्क ताकै परोक्षपणां मानिये है ॥ ७॥
इहां याका उदाहरण कहैं हैं;यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥८॥ याका अर्थ-जैसैं अग्निके होतें ही वूम होय अग्निके अभाव होते धूम नाही ही होय ऐसैं । इहां अतीन्द्रिय साध्यसाधनका उदाहरण ऐसा-जो जैसैं सूर्यकै गमनशक्तिसहितपणां साध्य करै अर गतिमानपणांकू हेतु करै सो ये दोऊ ही अतीन्द्रिय हैं-सूर्यकी गमनशक्ति दीखै नांही अर चलता भी दीखै नांही सो यह आगमगम्य है। बहुरि