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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
धर्मीहीकू पक्ष कह्या सो सिद्धान्तका विरोध कैसैं न भया ? ताका समाधान आचार्य करै है--जो ऐसे नांही है जाते साध्य जो धर्म ताके आधारपणांकरि विशेषितरूप किया जो धर्मी ताकू पक्षवचनकरि कहतें भी दोषका अवकाश नांही है। रचनाका विचित्रपणांमात्रकरि तात्पर्यका निराकरण नाही होय है तातै सिद्धान्तका अविरोध है॥२१॥ - इहां बौधमती कहै है धर्मीकू पक्ष कह्या सो तौ होहु परंतु धर्मी है सो विकल्पबुद्धिकैवि वर्तमान ही है अर वस्तुस्वरूप नाही है जातें " अनुमान अनुमेयका व्यवहार सर्व ही बुद्धिकरि कल्पिये है, बुद्धिकरि कल्पे जे धर्म धर्मी तिस न्यायकरि बाह्य ताका सत्व है कि नाही है ऐसी अपेक्षा नाही करै है" ऐसा हमारै कह्या है सो ताकै निराकरणके अर्थि आचार्य सूत्र कहैं हैं;
प्रसिद्धो धर्मी ॥२२॥ याका अर्थ-धर्मी है सो प्रसिद्ध है कल्पित ही नाही है इहां यह अर्थ है-जो बाह्य अर अन्तरंग पदार्थका नाही है आलंबनभाव जाकै ऐसी विकल्पबुद्धि है सो ही धर्मीकू स्थापै है सो ऐसें नाही है। जो धर्मी अवस्तुस्वरूप होय तौ तिसकै व्यापार जो साध्यसाधन ताकै भी वस्तुस्वरूपणां न बनें जाते अनुमानकी बुद्धिकै परंपराकरि भी वस्तुकी व्यवस्थाका कारणपणांका अयोग होय । तातै विकल्पकरि अथवा अन्यप्रमाणकरि स्थापन किया जो पर्वत आदिक सो अनुमानका विषयस्वरूप होता संता धर्मीपणांकू पावै है । ऐसा निश्चय भया जो धर्मी प्रसिद्ध है बहुरि तिसकी प्रसिद्धि है सो कोई वि. तौ विकल्पतें, कोई वि. प्रमाणते है, कोई वि. प्रमाण अर विकल्प दोऊनितें है, ऐसैं एकांतकरि विकल्पवि” ही ल्यायाकै अथवा प्रमाण प्रसिद्धहीकै धर्मीपणां नाही॥२२॥