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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ॥१७॥ ___याका अर्थ-अनिष्टकै अर प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि बाधितकै साध्यपणां न होय इस हेतु” इष्ट अर अबाधित ऐसा वचन है । अनिष्ट तौ जैसैं मीमांसककै शब्दकै अनित्यपणां है जातें मीमांसक शब्दकू नित्य मानें है सो अनित्य साधै तौ अनिष्ट होय । बहुरि शब्दकै अश्रावणपणां कहिये श्रोत्रके सुननेंमें न आवनां साधै तो प्रत्यक्षप्रमाणकरि बाधित होय आदिशब्दकरि अनुमान-आगम-लोक स्ववचनकरि बाधित लेनें । इनिका उदाहरण अकिंचित्कर हेत्वाभासका निरूपण करसी तिसके अवसरमैं ग्रंथकार आप विस्तारकरि कहसी यातै इहां न कहिये है ॥१७॥
इहां साध्यका असिद्धविशेषण तौ प्रतिवादी जो पीछे उत्तर कहै ताहीकी अपेक्षाकरि है जानैं पहलै पक्ष स्थापै ऐसा जो वादी ताकै प्रसिद्ध ही है, बहुरि इष्टपद है सो वादीकी अपेक्षा ही है ऐसा विशेष दिखावनें• सूत्र कहैं हैं;
न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥१८॥
याका अर्थ-जैसैं प्रतिवादीकी अपेक्षा असिद्धळू साध्य कहिये है तैसै ताकै इष्ट साध्य नाही है । इहां ऐसा प्रयोजन है-जो साध्यके सर्व ही विशेषण सर्वकी अपेक्षा नांही है कोई कोईकी अपेक्षा है कोई कोईकी अपेक्षा है । बहूरि असिद्धवत् ऐसा व्यतिरेककू मुख्यकार उदा. हरण दिया है । जैसैं असिद्ध प्रतिवादीकी अपेक्षा है तसैं इट ताकी अपेक्षा नांही है ऐसा अर्थ है ॥ १८ ॥
आगें यह काहेरौं कह्या ऐसें पू0 सूत्र कहैं हैं; --- प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरव ।। ५९ ॥ हि.प्र..