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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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-जो यह कहनां अयुक्त है जातैं मानसप्रत्यक्षविषै भावरूप ही धर्मीका प्राप्तपणां है । बहुरि कहै - तिस धर्मीकी सिद्धि मानसप्रत्यक्ष मैं होतैं ताका सत्त्वभी आय गया तातैं अनुमान व्यर्थ है, सो ऐसैं नांही
- तिसका सत्व अंगीकार भया तौ ऊपर वादी धीटपणांत - प्रतिपक्षप - णांत अंगीकार न करे तब तिसकूं सिद्ध करनेकूं अनुमानका सफलपणां है । बहुरि कहै— जो मानसप्रत्यक्ष मैं आकाशका फूलकाभी सद्भावकी संभावना अतिप्रसंग आवे ? सो ऐसें भी नांही है, जातैं आकाशके फूलका ज्ञानकै बाधक प्रतीतिकरि निराकरण भई है सत्ता जाकी ऐसा असत्वरूप वस्तु विषयपणांकरि ताकै मानसप्रत्यक्षाभासपणां है । बहुरि इहां कहै — जो ऐसें होतैं घोडाकै सींग इत्यादिककै धर्मीपणां कैसे बर्णैगा ? - तौ ऐसा तर्क न करनां जातैं धर्मीका प्रयोगकालविषै बाधक प्रत्ययका उदय नांही है तार्तै धर्मीका सत्त्वकी संभावना है । बहुरि सर्वज्ञादिक धर्मीविषै साधकप्रमाणका अभावपणांकरि सत्त्व प्रति संशय बताये तो संशय नांही है, सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणपणांकार जैसैं सुख आदिकै विषै का निश्चय है तैसैं सत्त्वका निश्चय है, तहां संशयका अयोग है | सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाण जाकूं कहिये जहां भलै प्रकार निश्चय किया असंभवता बाधक प्रमाण होय, भावार्थप्रमाण निश्चयतैं न होय ॥ २४ ॥
-बाधक
आगैं प्रमाणसिद्ध अर उभयसिद्ध जो धर्मी तिनिविषै साध्य कहा है ऐसी आशंका होतें सूत्र कहैं हैं;
प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥ २५ ॥
याका अर्थ —— प्रमाणसिद्ध अर प्रमाणविकल्पसिद्ध इनि दोऊ धर्मी "विषै साध्य जो धर्म ताकरि विशिष्टता जो धर्मीपणां सो ही साध्य है ।