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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
. आण मीमांसक कहै है जो धर्मीकी विकल्प” प्रतिपत्ति होते तुमारे साध्य कहा है ऐसी आशंका होते सूत्र कहै है;
विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥ २३ ॥ याका अर्थ-तिस धर्मीकू विकल्पसिद्ध होते सत्ता अर इतर कहिये असत्ता दोऊ साध्य हैं । इहां सुनिर्णीत कहिये भलै प्रकार निश्चय किया जो असंभवद्बाधक प्रमाण ताका बलकरि तौ सत्ता साध्य है। बहुरि योग्य जो अनुपलब्धि ताका बलकरि असत्ता साध्य है । ऐसे सत्ता असत्ता साध्य है ऐसा वाक्यशेष लेना ॥ २३ ॥ . इहां उदाहरण कहैं हैं;
अस्ति सर्वज्ञो नास्ति क्षरविषाणम् ॥ २४ ॥ याका अर्थ-सर्वज्ञ है, इहां तो विकल्पसिद्ध जो सर्वज्ञ धर्मी ताविर्षे सत्ता साध्य है । बहुरि खरविषाण नांही है, इहां गदहाकै सींग विकल्पसिद्ध धर्मी है ताविर्षे असत्ता साध्य है । या सूत्रका अर्थ सुगम है सो टीकाकार टीका न लिखी है ।
इहां मीमांसक कहै है-जो असिद्ध है सत्ता जाकी ऐसा जो धर्मी तावि. सद्भाव अर अभाव अरु भावाभाव इनि तीही धर्मनिकै असिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिकपणां है तातें अनुमानके विषयपणांका अयोग है तातें सत्ता अर असत्ताकै साध्यपणां कैसे बण । सो ही कह्या है श्लोकका अर्थ;-जो सत्ता साधिये है सो तहां हेतु भावका धर्म है तो असिद्ध है, अर अभावका धर्म है तौ विरुद्ध है, दोऊका धर्म है तो व्यभिचारी है सो ऐसी सत्ता कैसैं साधिये ? ताका समाधान आचार्य करें १ असिद्धो भावधर्मश्चेद् व्यभिचार्युभयाश्रतः।
विरुद्धो धर्मो भावस्य सा सत्ता साध्यते कथं ॥१॥