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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
आगैं अनुक्रममैं आया जो उपनय ताका स्वरूप निरूपण करै है;
हेतोरुपसंहार उपनयः ॥४५॥ याका अर्थ-इहां 'पक्षे' ऐसा अध्याहार लेनां, ताकरि यह अर्थ है; जो पक्ष विर्षे हेतुका संक्षेप करिये सो उपनय है । धूमवानपणां हेतु” अग्निमानपणां काहू जायगां साथै ताका दृष्टान्त कहकरि अर हेतुकू पक्षका विशेषण करै, जैसैं कहै-जो यह धूमवान है ऐसा कहनां उपनय है । याकी निरुक्ति ऐसे है-'उपनीयते' कहिये फेरि उचारिये हेतु जा करि सो उपनय है, ऐसा जाननां ॥४५॥ ___ आरौं निगमनका स्वरूप दिखावै है;
प्रतिज्ञायास्त निगमनम् ॥ ४६॥ याका अर्थ-जहां प्रतिज्ञाका उपसंहार करिये सो निगमन है। इहां उपसंहारकी अनुवृत्ति लेनी । प्रतिज्ञाकू साध्य जो धर्म ताकरि विशिष्टपणांकरि दिखावनां । जैसैं पहले प्रतिज्ञा कहै जो यह पर्वत अग्निमान है पीछे हेतु दृष्टान्त उपनय कहकरि फेरि फेरि प्रतिज्ञाकू संकोचकरि नियम करै जो तातें अग्निमान ही है, ऐसे प्रतिज्ञाका संक्षेप करना सो निगमन है ॥ ४६॥ ___ आरौं अन्यबादी तर्क करै जो शास्त्रविर्षे दृष्टान्त आदि कहनें ही ऐसा नियम तौ मान्यां नाही तब आचार्य इहां तिनि तीननिकू कैसैं दिखाये ? ताका समाधान-जो इहां ऐसा तर्क न करनां जातें आप आचार्य इनि तीनूं निकू अंगीकार न किये हैं तौऊ जिनमतके अनुसारी आचार्यनि- शिष्यके वशकरि प्रयोगकी पारेपाटीतैं मानें है सो प्रयोगकी परिपाटी तिनिका स्वरूप जिनिनैं न जान्यां होय तिनकरि करी जाय नाही इस हेतु” तिनिका स्वरूप भी शास्त्रविर्षे कहनां ही