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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥१३॥ याका अर्थ-पूर्वोत्तरचारी कहिये पहली पीईं होय ते कृतिका नक्षत्रका उदय अर रोहिणीका उदय पूर्वोत्तरचारी है तिनिकै क्रमभाव नियम है । बहुरि कार्यकारणकै जैसैं धूमकै अर अग्निकै कार्यकारणभाव है तिनिकै क्रमभाव नियम है ॥ १३ ॥ ___ आगें इस प्रकारका अविनाभावका ग्रहण कैसे प्रमाणकरि होय है तहां कहै है प्रत्यक्ष प्रमाणकरि तौ ग्रहण नाही जातै प्रत्यक्षका विषय तौ निकटवर्ती वस्तु है । बहुरि अनुमानकार भी ग्रहण नांही जातें प्रकृत अनुमानकरि ग्रहण मानिये तो इतरेतराश्रय दूषण आवै अर अन्य अनुमानकरि मानिये तौ अनवस्था दूषण आवै । बहुरि आगम आदिका भी यह अविनाभाव विषय नाही जाते तिनिका न्यारा न्यारा विषय है सो प्रसिद्ध है । तातै अविनाभावकी काहू प्रमाणकरि प्रतिपत्ति नाही, ऐसी आशंका होतें ताका ग्राहक प्रमाणका सूत्र कहैं हैं;
. तर्कात्तन्निर्णयः ॥ १४ ॥ याका अर्थ-पूर्वै कह्या है लक्षण जाका ऐसा जो तर्क प्रमाण ताका द्वितीयनाम ऊह है तातै तिस अविनाभावका निर्णय है—यह अविनाभाव ताका विषय है ॥१४॥ आगैं अब साध्यका लक्षण कहैं हैं;
इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् ॥ १५ ॥ याका अर्थ-जो साधने योग्य होय सो साध्य कहिये, तिस साध्यके तीन विशेषण हैं;-साधनेवालेकै इष्ट होय जाकू साधनेका अभिप्राय होय ऐसा, बहुरि जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणकरि. बाध्या न जाय ऐसा, बहुरि जो पहले सिद्ध न किया होय ऐसा सो साध्य है ।