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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला !
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अर सर्वसामर्थ्यस्वरूप एकस्वभावरूप कारणकरि उपजावापणां है सो देशकालका न्यारा न्यारा नियमरूप कार्यनिवि बणें नाही । सो ऐसैं ब्रह्मकी असिद्धि होते वेदनिमैं ताकी सुप्त अवस्थाका कहनां अर ताकी जागृत अवस्थाका कहना अर तिस परमपुरुषनामा महा. भूत ताका निश्वास वेद है ऐसा कहनां आकाशके कमलकी सुगंधका वर्णन सारिखा है, सो अग्राह्य पदार्थ है विषय जाका तिस स्वरूप होनेंतैं आदरने योग्य नाही है, असत्यार्थकू कौन आदरै । बहुरि जो ब्रह्मके साधनेविर्षे आगम प्रमाण कह्या “ सर्व वै खल्विदं ब्रह्म ” इत्यादि "बहुरि ऊर्णनाभ” इत्यादि सो सर्व ही कहे विधानकरि अद्वैतका विरोधी हैं यात अवकाश नांही पावै है । बहुरि आगमकू अपौरुषेय कहै है सो बण नाही याका विस्तार आगें कहसी तातै पुरुषोत्तम परमब्रह्म कहैं सो भी परीक्षामैं नाही आवे है ।
ऐसें मुख्यप्रत्यक्षका वर्णन किया, तहां सर्वज्ञकी सिद्धि यथार्थ करी, अन्यवादीकी बाधाका परिहार किया । इहां टीकाकारकृत श्लोक है;
प्रत्यक्षतरभेदभिन्नममलं मानं द्विधैवोदितं देवैर्दीप्तगुणैर्विचार्य विधिवत्संख्याततेः संग्रहात् । मानानामिति तदिगप्यभिहितं श्रीरत्ननंद्याव्हयैस्तद्वयाख्यानमदो विशुद्धद्धिषणैर्वोद्धव्यमव्याहतम् ॥१॥ याका अर्थ-'देवैः' कहिये श्रीअकलकदेव आचार्य जैसे विधि जिनागममैं है तैसे विचारिकरि अर प्रत्यक्ष अर परोक्ष भेदकरि भिन्न निर्दोषप्रमाण दोय प्रकार ही कह्या, कैसे है आचार्य ? दीप्त कहिये देदीप्यमान है सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनिमैं बहुरि प्रमाणनिक