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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
निका नानापणांका सद्भाव है। इहां कहै-जो आकाशकै विर्षे तौ प्रदेश उपचरित है तौ समस्त मूर्तीक द्रव्यनिका संबंधकै भी उपचरितपणां आया तब आकाशकै सर्वगतपणां भी उपचरित ठहरया, तब श्रोत्रकै अर्थक्रियाकारीपणां न ठहरैगा श्रोत्र इन्द्रिय आकाशतें जुडै तब शब्द आकाशका गुण है सो ग्रहण होय है ऐसें नैयायिक मानें है सो संबंध उपचरित ठहरै तब श्रोत्रकै अर्थक्रियाकारीपणां-शब्दका ग्रहण करनां है सो न ठहरैगा जातैं आकाश उपचरित प्रदेशरूप मान्यां है । बहुरि कहै जो धर्म अधर्मके संस्कार” श्रोत्रौं अर्थक्रिया होय है, ताकू कहिये-जो उपचरित तौ अभावरूप है सो ताके तिनि धर्मादिकरि उपकारका अयोग है जैसैं गदहाके सींगकै कछू काहूकरि उपकार न होय तैसैं है । ता” अवयवनिका संबंधस्वरूप जो संनिवेश कह्या सो तौ किछू भी नाही । बहुरि दूसरी पक्ष रचनाविशेष है सो मानिये तौ हमारै जैनिनकै पृथ्वी आदि रचनाविशेषकू सावयवरूप कार्यस्वरूप नाही मानिये है तातें यह हेतु भागासिद्ध होय है सो यह दूषण अवस्थित होय है ऐसैं अभूत्वा भावित्व है सो विचारमैं नाही बरौं है ।
बहुरि तीसरा पक्ष अक्रियादीकै कृतबुद्धिका उत्पादकपणां है, याका अर्थ यह-जो कार्यके उपजनेकी क्रिया तौ न देखी तौऊ ताविषै ऐसी बुद्धि उपजै जो यह काहूनें किया है सो यह कार्यपणां मानिये तो दोय पक्ष पूछिये है, सो ऐसी बुद्धि उपजै जो पहले काहूनैं संकेत किया होथ जो ऐसा तो किया ही होय है ताकै उपजै है कि बिना ही संकेत उपजै है ? जो कहैगा संकेत करनेंवालेकै उपजै है तौ आकाश आदिकै भी बुद्धिमानकरि कियापणां ठहरेगा। तहां भी कहूं खोदिकरि माटी काढ़े तब खानां (डा) होय जाय आकाश प्रगट होय तहां ऐसी बुद्धि उपजै है जो यह आकाश काहू.