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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
७३ अभावका एक आश्रयकै विरोध है, भावार्थ-कार्य है सो भावस्वरूप ही है अभावस्वरूप नाही है । अर जो अविरोध मानिये तो तिनि दोऊनिकै पर्यायमात्रकरि ही भेद आवै वस्तुभेद नाही आवै । अथवा कोई प्रकार अभूत्वा भावित्व है सो कार्यत्वका स्वरूप होहु तौऊ तनु आदिक सर्वविधैं नाही माननेंतें हेतु भागासिद्ध होय है जातें हमारै पृथिवी पर्वत समुद्र उद्यान आदि पहली न होय करि होते नाही मानिये है जातें हमार जैनीनिके पृथिवी आदिका सदाकाल अवस्थान मानें हैं। बहुरि कहै जो पृथिवी आदिकै अवयवसहितपणांकरि आदिसहितपणां साधिये है सो ऐसा कहनां भी विना सीखेकरि कह्या है, जातें इहां दोय पक्ष पूछिये, अवयवनिविर्षे अवयव की प्रवृत्तिते है कि अवयवनिकरि आरंभिये है यारौं है ? इनि दोऊ ही पक्षनिवि अवयवसहितपणांकी अनुपपत्ति है। जो प्रथम पक्ष लीजिये तो अवयवसामान्यकरि अनेकांत है जातें अवयवसामान्य है सो अवयवनिविर्षे वत्तै है अर कार्य नाही है । बहुरि दूसरी पक्ष जो अवयवनिकरि अवयवी आरंभिये है तौ साध्यतै अविशिष्ट है जाते आदिसहितपणां साधिये है सो ही अवयवनिकरि आरंभिये है ऐसा हेतु कह्या यामैं साध्यतै विशेष कहा भया। बहुरि कहै—जो यह संनिवेश है आकाररूप रचनाविशेष है सो ही सावयवपणां है सो ही घट आदिकी ज्यों पृथिवी आदिवि पाइए है यातें अभूत्वा भावित्व ही कहिये है सो ऐसैं कहनां भी सुन्दर नाही, संनिवेशके भी विचारका असहपणां हैपरीक्षा किये बणे नांही है । इहां दोय पक्ष पूछिये, यह संनिवेश है सो अवयवनिका संबंध है कि रचनाका विशेष है ? जो कहैगा अबयवनिका संबंध है तौ आकाश आदिकरि अनेकांत होगा जाते आकाशकै समस्त मूर्तीक द्रव्यका संयोग है कारण जाकू ऐसा प्रदेश