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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
द्रवत्व, स्नेह, शब्द, ए चौईस गुण मानें हैं । बहुरि प्रसारण, आकुंचन, उत्क्षेपण, गमन, आगमन, ये पांच कर्म मानें हैं। पर सामान्य, अपर सामान्य ये दोय प्रकार सामान्य मानें हैं । विशेष अनेक हैं सो इनिमैं अभाव नाही । अभावनामा सातवां पदार्थ न्यारा है । बहुरि कहे जो अभावका परित्याग करि इहां भाव ही विवादाध्यासितकरि पक्ष किया है तातें तुमनैं दोष बताया सो इहां नांही प्रवेश करै है ? ताकू कहिये-जो अभावकू कार्यका पक्षमैं न लीजिये तो मुक्तिके अर्थी जे मुनि तिनिकै ईश्वरका आराधनां अनर्थक ठहरैगा जाते तिस कर्मनाशके कार्यविर्षे ईश्वरका आराधनां किछू करनेवाला नाही । बहुरि यह सत्तासमवाय कार्यका स्वरूप माननां विचार किये सैंकडां प्रकार खंड्या जाय है तातै कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है, जातै सो सत्तासमवाय पदार्थ उत्पत्ति भये होय है कि उपजते संतेकै होय है ? जो कहेगा उत्पत्ति भये होय है तौ तहां भी पूछिये जो छतेनिकै होय कि अछतेनिकै ? जो कहेगा अणछतेनिकै होय है तो गदहाके सींग आदिकै भी सत्तासमवायका प्रसंग आवैगा । बहुरि कहैगा जो छते पदार्थनिकै होय है तौ तहां पूछिये जो सत्तासमवायतें होय है कि आपही” होय है ? तहां प्रथम सत्तासमवायतें कहैगा तौ अनवस्थाका प्रसंग आवैगा जातें पहले पूछया था जो छत्ते पदार्थकै होय है कि अणछतेनिकै सो ही विकल्प फेरि पूछिये तब अनवस्था चली जाय । बहुरि कहैगा पदार्थनिकै आपहीतैं सत्तासमवाय है तौ जुदा सत्तासमवायका माननां अ. नर्थक है । बहुरि दूजा कहै जो पदार्थ उपजते संतेनिकै सत्तासमवाय है जाते पदार्थनिकी निष्पत्ति अर संबंध इनि दोऊनिकै एक कालपणांका अंगीकार है तौ पूछिये जो यह सत्तासंबंध है सो उत्पादतै भिन्न है कि अभिन्न है ? जो कहेगा भिन्न है तौ उत्पत्तिके असत्त्व" अवि