________________
हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
६९ कहे तिनिकै असम्यक् हेतुपणांकरि तिनि हेतुनिकरि उपज्या ज्ञानकै मिथ्यारूपपणां है, सो ही कहिये है; यह कार्यत्वनामा हेतु कह्या सो याका कहा स्वरूप हैं, स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप कार्यत्व है, कि अभूत्वा भावित्व है, कि अक्रियादर्शीकै कृतबुद्धि उत्पादकपणां है, कि कारणके व्यापारकै अनुविधायीपणां है ? इनि सिवाय गतिका अभाव है, ऐसें चार पक्ष पूछिये हैं । तहां आदिका पक्ष कहैगा तौ योगीश्वरनिकै समस्त कर्मका नाशनामा जो कार्य सो भी कार्यत्वपक्षमैं ही है ताविषै कार्यत्वनामा हेतुकी अप्रवृत्ति है यातें हेतु भागासिद्ध होयगा । जो हेतु पक्षके कोई देश मैं न व्यापै सो भागासिद्ध कहिये । सो इस कर्मका नाशविषै स्वकारणसमवाय भी नांही अर सत्तासमवाय भी नांही । वस्तुकी सत्तासूं एकता होय सो तौ सत्तासमवाय कहिये, बहुरि वस्तु के कारणसूं एकता होय सो स्वकारणसमवाय कहिये । सो कर्मका नाश प्रध्वंसनामा अभावस्वरूप है सो यामैं सत्ता भी नांही अर समवाय भी नांही जातैं सत्ता तौ द्रव्य, गुण, क्रियाकै आधार मानिये है, बहुरि समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, इन पांच पदार्थ मैं वर्त्तनेवाला मानिये है यह नैयायिक-वैशेषिकका मत है। तहां पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश, दिशा आत्मा, काल, मन, ये नव तौ द्रव्य मानैं हैं । बहुरि बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संस्कार, धर्म, अधर्म, रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व,
१ - सत्तासूं वस्तुकै एकता होय सो तौ सत्तासमवायस्वरूप कार्य वस्तु है बहुरि वस्तु कारणं सत्ताकै एकता होय सो स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप कार्य है ऐसें दोऊ मैं ही कहिये, वस्तु मैं वा वस्तुके कारण मैं सत्तासमवाय मान्या यातें सत्तासमवाय लक्षण कार्यका स्वरूप मानैं है ।