________________
हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
६७
1
।
पणां, आयु कहिये आयुर्बल, सुख दुःखका भोगनां सो भोग ये विपाकके विशेष | बहुरि आशय कहिये निवृत्ति तांई जो भाव लाग्या रहै सो ऐसे भावनिकरि सर्वज्ञ पुरुष स्पर्शित नांही है । सो सर्व ही विषै गुरु है बड़ा है कालकरि जाका विच्छेद नांही है, ऐसैं पतंजलि के वचन हैं । बहुरि अवधूत जो संन्यासीनिका आचार्य ताके ऐसे वचन हैं, श्लोकका अर्थ – हे भगवन् ! एते विशेषण तेरे ही हैं, प्रथम तौ जो काहूकार हत्या न जाय ऐसा ऐश्वर्य तेरे ही है, बहुरि स्वभावही विरागता तेरै ही है, बहुरि स्वभावतैं उपजी तृप्तिता तेरै ही है, बहुरि इन्द्रियनिका वश करनां तेरे ही है, बहुरि अत्यन्तमुख तेरे ही है, बहुरि आवरणरहित शक्ति तेरै ही है, बहुरि सर्वविषयका जाननहारा ज्ञान तेरे ही है ऐसा अवधूतका वचन है । ऐसैं ईश्वर सर्वतैं बड़ा है तातैं कार्यके कर मैं अनवस्था नांही है । बहुरि तहां ईश्वरकी सिद्धिकं कार्यत्वनामा हेतु है सो असिद्ध नांही है, अवयवसहितपणांकरि कार्यत्वकी सिद्धि है जो अवयवनिकरि सहित होय सो कार्य है सो किया ही होय । बहुरि यह हेतु विरुद्ध भी नांही है जाते याकी विपक्ष जो बिना किया होना तावि वृत्तिका अभाव है । बहुरि अनैकान्तिक भी नांही है विपक्ष जे परमाणु आदि तिनि विषै याकी अप्रवृत्ति है, परमाणु आप कार्य नांही । बहुरि प्रकरणसम भी नांही है जातैं प्रतिपक्षकी सिद्धिका कारण जो अन्य हेतु ताका अभाव है ।
२ - ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिर्निसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तवैव ॥ इत्यवधूतवचनाच्च ।