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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
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-ताका' श्लोक है ताका अर्थ ; यह जंतु कहिये जीव सो अज्ञानी है आप ही आपकै सुख दुःख करिवेकूं असमर्थ है या ईश्वरका प्रेरया हुआ स्वर्ग तथा नरककूं गमन करे है । बहुरि ऐसैं भी न कहनां जो अचेतन जे परमाणु आदि कारण तिनिहीकरि कार्यकी निष्पत्ति होय है ततैं बुद्धिमान कारणका अनर्थकपणां है जातैं अचेतनकै कार्यकी उत्पत्तिविषै आपहीतैं व्यापार करनेका अयोग है— जड़ आप ही कार्य करि सकै नांही, जैसैं कोलीके राछ वेम तुरी अर तंतु इनितैं आपहीतैं वस्त्र बणें नांही कोली पुरुष व्यापार करै तब बणै । बहुरि ऐसैं चेतनकै भी अन्यचेतनपूर्वक कार्य करनां नांही है जातैं यामैं अनवस्था आवै । ईश्वर है सो सकल पुरुषनितैं बड़ा है समर्थ है अतिशयकी हदकूं प्राप्त है, सर्वज्ञबीज कहिये जगत्का कारण सर्वज्ञ सो ही बीज है | बहुरि क्लेश कर्म विपाक आशय इनिकरि अपरामृष्ट है—रहित है बहुरि अनादिभूत अविनाशी ज्ञानका संभव जाकै है, ऐसे ही पैंतंजलिनें कह्या है— क्लेश कहिये अविद्या १ अस्मिता १ रागद्वेष १ अभिनिवेश १, तहां अविद्या तौ विपरीत जाननां सो है, बहुरि अस्मिता कहिये अहंकार, रागद्वेष कहिये सुख - दुःख तथा ताके साधनविर्षै प्रीतिअप्रीति, अभिनिवेश कहिये अपना ईश्वरपणांका भंगका भय, ये तौ क्लेशके विशेष | बहुरि कर्म कहिये धर्म-अधर्मके साधन यज्ञ अर ब्रह्महत्यादिक । बहुरि विपाक कहिये जाति आयु भोग, तहां जाति देव मनुष्य आदि१ - अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ १ ॥
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२ – यदाह पतञ्जलिः - क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषः सर्वशः स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाविच्छेदादिति ।