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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
जो असर्वज्ञ सर्वकाल सर्वक्षेत्रका ज्ञान मानि सर्वज्ञके अभावका उपकी सामग्री मानिये तौ ऐसें जाननेवालाहीकै सर्वज्ञपणां ठहरथा । बहुरि क — जो इस क्षेत्र काल मैं सर्वज्ञका अभाव साधिये है तौ युक्त नांही यामैं सिद्धसाध्यपणांका प्रसंग आवै है कोई क्षेत्र कालकी अपेक्षा सर्वज्ञका अभाव सिद्ध ही है, सिद्धकूं कहा साधिये । तातैं मुख्य अतीन्द्रियज्ञान समस्तपणांकरि विशद ऐसा सिद्ध भया ।
बहुरि सर्वज्ञका ज्ञान अतीन्द्रिय है तातैं अपवित्रका देखनां तिसका रसका आस्वादन करनां ऐसा दोष भी निराकरण भया, अशुच्यादिकका देखनां रसका आस्वाद करनां दोष तौ इन्द्रियज्ञान अपेक्षा का है, वीतरागकै यह दोष नांही ।
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बहुरि पूछे है - जो अतीन्द्रियज्ञानकै विशदपणां कैसें है; हम तौ नेत्रादिकतैं स्पष्ट ज्ञान होता जानैं हैं । ताका समाधान; — जैसैं सांचा स्वप्नका ज्ञानकै तथा भावनाका ज्ञानकै विशदपणां है तैसें इन्द्रियनि विना भी विशदपणां जाननां, जातैं देखिये है — भावनाके बलतैं दूरदेश अन्यदेशवर्त्ती वस्तुकों विशद जानिये है, जैसे कला है ताका श्लोक है; ताका अर्थ काढू कामीजनकूं बंदीखाने मैं दीया सो कहै है; - देखो ! यह गुप्त आछाद्या जुड्या जो बंदीखानांका घर तहां ऐसा अंधकार जो सूईके अग्रभागकरि भी भेद्या न जाय तहां मेरे नेत्र मीचिंकरि मैं बैठा तौऊ तिस स्त्रीका मुख मोकूं प्रगट दीखै है । ऐसा काहू कामीका वचन है सो ऐसे बहुत उदाहरण हैं । इन्द्रियनिके संबंध विना केवल मनके ही द्वारा विशद - स्पष्ट प्रतिभास होय है, ऐसें मीमांसककूं तौ उत्तर दिया ।
१ पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रदुर्भेद्ये ।
मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम् ॥१॥