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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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व्यापक माननां निरर्थक ठहरया, मीमांसक शब्दकू व्यापक मानें है। बहुरि व्यापकरूप शब्द नित्य साधिये तो आगमकरि अथवा सामर्थ्यकरि अथवा अपनी शक्तिकरि तथा दृष्टान्तके अनुग्रहकरि व्यापकपणां नाही निश्चय होय है जारौं अव्यापक नित्यपक्षविर्षे भी याकी समानवृत्ति है, ता” जाति-उत्तर होय है । दोऊ पक्षविर्षे प्रश्न उत्तर समान होय जाय तहां जातिनामा दूषण होय है । ऐसें पूर्वै सर्वज्ञका साधनरूप हेतु कह्या सो निर्दोष है तातै सर्वज्ञ सिद्ध होय है । बहुरि जो अभावप्रमाणकरि सर्वज्ञकी सत्ता ग्रासीभूत करी कही सो भी अयुक्त है-तिस सर्वज्ञका ग्राहक अनुमानप्रमाणका सद्भाव होतें पांच प्रमाणका अभाव है मूल जाका ऐसा जो अभाव प्रमाण ताकी उत्पत्तिकी सामग्रीका अयोग है जारौं हे मीमांसक ! तेरे ही मतमैं ऐसा कया है ताका श्लोक है, ताका अर्थ-वस्तुका सद्भावकू ग्रहण करि बहुरि ताका प्रतियोगीकू यादि करि इन्द्रियनिकी अपेक्षारहित मनसंबंधी नास्तिताका ज्ञान उपजै है अन्यप्रकार नाही उपजै है । ऐसें होतें तीनकाल तीन लोकस्वरूप जो वस्तु ताका सद्भावका ग्रहणविर्षे कोई काल कोई क्षेत्रविर्षे ग्रहण किया जो सर्वज्ञ ताका स्मरण होते कोई क्षेत्र कालविर्षे ताकी नास्तिताका ज्ञानरूप अभावप्रमाण युक्त होय है, अन्यप्रकार नाही है । सो कोई छद्मस्थ असर्वज्ञजनकै तीन जगत तीनकालका ज्ञान नाही बणै है तातै सर्वज्ञ अतीन्द्रियका ज्ञान न होय है, यह सर्वज्ञपणां चैतन्यका धर्म है तातैं अतीन्द्रिय है सो भी असर्वज्ञ जनका विषय नाही ऐसे होते अभावप्रमाण कैसैं उदयकू प्राप्त होय । असर्वज्ञ पुरुषकै तिस सर्वज्ञके अभावकी उपजाबनेकी सामग्रीका संभवका अभाव है । बहुरि
१ गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताशानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥१॥