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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
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__ ऐसैं बौद्धमती तौ प्रमाणकी प्रमाणता आपहीतैं मानें हैं, अर नैयायिक परतें ही मानें हैं, अर मीमांसक उत्पति अर ज्ञप्तिविर्षे प्रमाणता दोऊ आपहीतै अर अप्रमाणता परहीरौं मानैं है, अर सांख्यमती प्रमाणता तौ परतें मानें हैं अप्रमाणता आपहीतैं मानें हैं तिनि सर्वनिका निराकरण स्याद्वादतै होय है । आगैं इहां टीकाकारकृत श्लोक है;
देवस्य सम्मतमपास्तसमस्तदोषं
वीक्ष्य प्रपञ्चरुचिरं रचितं समस्य। ___ माणिक्यनन्दिविभुना शिशुबोधहेतो
__ मानस्वरूपममुना स्फुटमभ्यधायि ॥ १॥ याका अर्थ- देवस्य ' कहिये अकलङ्कदेवनामा आचार्य ताका समस्तदोषरहित विस्तारकरि सुन्दर भलै प्रकार मान्यां ऐसा जो न्यायशास्त्रमैं प्रमाणका स्वरूप ताहि विचारिकरि माणिक्यनंदिनामा जे समर्थ आचार्य तिनि. इस परीक्षामुखशास्त्रविौं संक्षेपकरि रच्या जो प्रमाणका स्वरूप तिसकू बालक जे अल्पज्ञानी तिनकै ज्ञान करनैं आर्थ मैं अनन्तवीर्य आचार्य प्रगटकरि कह्या है ॥ १३ ॥
छप्पय । आप जानि परवस्तु अपूरवका निश्चय कर
करणरूप जो ज्ञान ताहि भाष्या प्रमाण वर । उपजै परतें आनकू गहै अभ्यास
विन अभ्यास सहाय्य आनका लिये प्रकासै ॥ अकलंकदेव जैसैं कह्या माणिकनंदि विचारि उर ।
भाष्यो स्वरूप संक्षेप यह ग्रन्थ परीक्षाद्वार धुर ॥ इति परीक्षामुखकी लघुवृत्तिकी वचनिकाविर्षे
प्रमाणका स्वरूपका उद्देश समाप्त भया । हि.प्र. ३