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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
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णांकी संख्याका नियम ताहि बिगाडै है-निषेधै है तातें हमारी चिंताकरि कहा साध्य है।
तैसैं ही प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है सो भी बौद्धकी दोयपणांकी संख्याका नियमका निराकरण करै है । तिस प्रत्यभिज्ञानाका भी प्रत्यक्ष अनुमानविर्षे अंतर्भाव न होय है । इहां बौद्धमती तर्क करै है;-जो प्रत्यभिज्ञानविर्षे 'तत्' कहिये सो है ऐसा तौ स्मरण भया अर ' इदं' कहिये यहु है ऐसा प्रत्यक्ष भया ऐसैं ये दोय ज्ञान भये इनितें न्यारा तीसरा तौ ज्ञान भया नांही ताकू हम प्रत्यभिज्ञान मानैं अर न्यारा प्रमाण कहैं यात तिस प्रत्यभिज्ञानकरि प्रमाणकी संख्याका निषेध कैसे होय ? ताका समाधान आचार्य करै है;-जो यह कहनां भी युक्त नांही जातै प्रत्यभिज्ञानका विषयरूप जो पूर्वापरका जोड़रूप वस्तुभूत अर्थ ताकू स्मृति अरु प्रत्यक्ष ये दोऊ ही ग्रहण करनेकू समर्थ नाही हैं, पहली अर पिछली दोऊ अवस्थाविर्षे वर्त्तनेवाला जो एक द्रव्य सो प्रत्यभिज्ञानका विषय है । यहु स्मरणकरि ग्रहणमैं आवै नांही जारौं स्मरणका तौ पूर्व अनुभवन जाका भया सो ही विषय है । बहुरि प्रत्यक्षकरि भी ग्रहणमैं आवै नांही जाते प्रत्यक्षका विषय तौ वर्तमान अवस्था ही है । बहुरि बौद्धनैं कह्या जो स्मरण अर प्रत्यक्षतें न्यारा तौ प्रत्यभिज्ञान नाही सो यह कहनां भी अयुक्त है । पूर्वोत्तरअवस्थाविर्षे अभेदका ग्रहण करनेवाला तीसरा प्रत्यभिज्ञान प्रतिभासमैं आवै है । स्मृति प्रत्यक्षमैं कोई एककै तौ पूर्वोत्तर अवस्थाविर्षे व्यापक जो अभेद ताका ग्रहणस्वरूपपणां नांही है जारौं इनि दोउनिके विषय न्यारे न्यारे हैं । बहुरि यहु प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्षविर्षे अन्तर्भाव होय नाही तथा अनुमानविर्षे अन्तर्भाव होय नाही जाते प्रत्यक्ष तौ वर्तमान निकटवर्ती वस्तुकू ग्रहण करै है याका यह ही विषय है अर अनुमान है सो