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६० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित"धप्रत्ययपणां कैसैं है ? ताका समाधानकू प्रयोग करै है;-दोष अर
आवरण कोई पुरुष विर्षे मूलतें नाश होय है जातें इनकी हानि बधती बधती देखिये है सो जाकी बधती हानि है सो कोई विर्षे मूलतें समस्त भी नाश होय है, जैसैं अग्निके पुटका पाकतें दूर भये हैं कीट अर कालिमा आदि अंतरंग बहिरंग दोऊ मल जाकै ऐसैं सुवर्ण शुद्ध होय है तैसैं ही बधती बधती हानिरूप दोष अर आवरण हैं, ऐसा प्रयोग जाननां । बहुरि विवादमैं आया जो ज्ञान ताकै आवरण कैसैं सिद्ध है जातै प्रतिषेध है सो विधिपूर्वक है ? इहां कहिये है-विवादमैं आया जो ज्ञान सो आवरणसहित है जातें अपने विषयकू अविशदपणांकरि जनावनहारा है जैसैं रज करि तथा धूम बरफ आदि करि पदार्थ अंतरित होय है आच्छादित होय है तैसें है। बहुरि कोई कहै आत्मा तौ अमूर्तीक है सो अमूर्तपणातै आवरणका अयोग्य है ? सो ऐसें नाही है, चैतन्यकी शक्ति अमूर्तीक है तौऊ मदिरा तथा मांचणां कोदूं आदि करि याकै आवरण होय है । कोई कहै मदिरादिकरि तौ इन्द्रियकै आवरण है तो ऐसैं भी नांही है जारौं इन्द्रिय तौ अचेतन है सो आवरण भये भी अनावरणा समान ही है बहुरि स्मरण आदिका प्रतिबंधका अयोग होय, मतवालाकै स्मरण नाही है जो इंद्रियहीकै आवरण होय तौ मदोन्मत्तकै स्मरण कैसैं न होय । बहुरि मनकै भी आवरण न कहिये जातें आत्मा विना अन्य मनका निषेध आगें करेंगे तातै अमूर्तिककै आवरणका अभाव नांही है । तातैं तद्ग्रहण स्वभावपणां होतें प्रक्षीणप्रतिबंध प्रत्ययपणां हेतु है सो असिद्ध नांही है । बहुरि यह हेतु विरुद्ध भी नांही है जातें विपरीत जो विपक्ष आत्माकै सूक्ष्मादिग्रहण स्वभावका अभाव ताविषं निश्चयस्वरूप जो अविनाभाव ताका अभाव है। बहुरि यहु हेतु अनैकान्तिक भी नांही है जाते एकदेशकरि तथा साम