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५८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितअपौरुषेय वेद है सो कर्मविशेष जो यज्ञ आदि शुभकार्य ताका संस्तवन कहिये प्रशंसादिक ताकै विर्षे प्रवीण है सो पुरुषविशेषका जनावनहारा नाही । पुरुष तौ आदि लिये है अर नित्य आगम वेद है सो अनादि है सो अनादिकै आदिमान पुरुषका कहनां बणे नाही । बहुरि जो अनित्य आगम स्मृति पुराण आदि हैं ते सर्वज्ञकू साधैं है ऐसैं कहिये तौ तिस अनित्य आगमकै (कू) भी सो सर्वज्ञका कह्या कहिये तो सर्वज्ञका निश्चय पहिले किया विनां ताका प्रमाणपणांका निश्चय नाही होय है, बहुरि इतरेतराश्रयनामा दोष आवै है, सर्वज्ञके कहे पणेतै तौ तिस आगमका प्रमाणपणां सिद्ध होय अर तिस आगमका प्रमाणपणांकी सिद्धित सर्वज्ञकी सिद्धि होय ऐसे इतरेतराश्रयदोष होय । बहुरि असर्वज्ञका कह्या आगमका प्रमाणपणां ही नाही ताकै सर्वज्ञका प्ररूपणविर्यै प्रवीणपणां है ऐसा कहनां ही अतिशयकरि असंभाव्य है । बहुरि सर्वज्ञसमान अन्यका ग्रहणका असंभवतै उपमान प्रमाण ताका सद्भाव नाही जनावै है । बहुरि अर्थापत्तिप्रमाण है सो भी सर्वज्ञका जनावनेवाला नाही है जाते याका अनन्यथाभूत वस्तुतें जानना है, सो कोई ऐसा वस्तु नांही जो सर्वज्ञविना न होय ताकरि अर्थापत्ति सर्वज्ञकू जनावै । बहुरि जो धर्मादिकपदार्थ हैं तिनिका उपदेश है ताकरि अर्थापत्ति होय ऐसैं कहिये तो धर्म आदिका उपदेश तौ व्यामोहरौं भी संभव है, जातै उपदेश दोय प्रकार है सम्यक् उपदेश, मिथ्या उपदेश | तहां मनु आदि ऋषि भये हैं तिनिका तौ सम्यक् उपदेश हैं जाते तिनिकै यथार्थज्ञानका उदय है सो वेदमूल है—वेदतै उपज्या है । बहुरि बुद्ध आदिका उपदेश है सो व्यामोहपूर्वक है जारौं तिनिकै ज्ञान वेदतै उपज्या नाही ते-वेदार्थके जाननेवाले नाही । तातै सर्वज्ञ पांचूं ही प्रमाणका विषय नाही, तहां अभाव प्रमाणहीकी प्रवृत्ति है ताकरि सर्वज्ञका अभाव ही जानिये