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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
अपने विषयविर्षै भी विशदपणां नांही है ऐसैं अतिव्याप्ति दूषणका भी परिहार है सो यह अतीन्द्रिय अवधि, मन:पर्यय, केवलके भेदतैं तीन प्रकार मुख्य प्रत्यक्ष है जातैं ये आत्माके संनिधिमात्रकी अपेक्षातैं उपजै हैं; अन्य इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा इनिकै नांही है ।
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इहां मीमांसकमती भट्टमताका आशय ले कहै है; जो समस्त विषयविषै विशदका अवभासनेवाला ज्ञानकै अर तिस ज्ञानसहित पुरुपकै प्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाणका विषयपणांका अभावपणांकरि अभाव प्रमाण सो ही भया विषमसर्प ताकरि नष्ट भई है सत्ता जाकी तिसपणांतें कौनकै मुख्य प्रत्यक्ष होय है । भावार्थ — सर्वका जाननेवाला ज्ञान अर सर्वज्ञ ये पांचूं ही प्रमाणका विषय नांही- -अभाव प्रमाणका विषय है तातैं अभाव ही सिद्ध होय है । सो ही कहै है; - प्रथम तौ प्रत्यक्ष प्रमाण है ताका सर्वज्ञ विषय नांही, जातैं प्रत्यक्षकै तौ रूपादिक नियमरूप जे विषय तिनिविषै प्रवर्त्तनपणां है इन्द्रिय प्रत्यक्ष जो विषय संबंधरूप होय अर वर्त्तमान होय ताही विषय (विषै) प्रवर्त्ते है सो समस्तका ज्ञाता सर्वज्ञ इन्द्रियनितैं संबद्ध नांही वर्त्तमान नांही । बहुरि अनुमानतें भी ताकी सिद्धि नांही है, जातै ग्रहण किया है संबंध जानें ऐसा पुरुषकै वस्तुका एकदेश देखनेंतैं दूरववर्ती वस्तुविषै बुद्धि होय है सो सर्वज्ञका सद्भावतैं अविनाभावी कार्यलिंग तथा स्वभावलिंग हम नांही देखें हैं जातें अनुमान करें, जातैं सर्वज्ञके जानें पहली तिसका स्वभाव अर तिसका कार्य जो तिसके सद्भावतैं अविनाभावीका निश्चय करनें का असमर्थपणां है । बहुरि आगमप्रमाणकरि भी ताकी सिद्धि नांही है । इहां दोय पक्ष — आगम नित्यरूप तिसके सद्भावकूं जनावै है कि अनित्य आगम जनावै है ? तहां नित्य आगम तौ ताका सद्भाव नांही जनाये है जातें नित्य तौ अर्थवादरूप है प्रयोजनमात्रकूं कहै है ।
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