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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । है । पांच प्रमाणका तौ व्यापार भावके अंशविर्षे ही होय है ऐसैं भट्टमती अपनें मतका समर्थन कीया । ___ अब आचार्य ताका प्रतिविधान करै है;--प्रथम तौ कह्या जो सर्वज्ञकै प्रत्यक्षादिक प्रमाणका अविषयपणां है सो अयुक्त है जाते तिस सर्वज्ञका ग्राहक अनुमान प्रमाणका संभव है, सो ही कहै है;--कोई पुरुष सकल पदार्थका साक्षात् करनेवाला है जानैं तिनि पदार्थनिके ग्रहण करनेका स्वभावपणांके होते संतै प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययपणां है, भावार्थ-सूक्ष्म आदि पदार्थनिकू ग्रहण करनेका पुरुषका स्वभाव है सो ज्ञानका प्रतिबंधक कर्मके नाश भये ज्ञान प्रकट होय है । जो जिसका ग्रहणस्वभावपणांकू होतें प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्यय होय सो तिसका साक्षात् करनेवाला होय जैसैं जाका तिमिर दूरि भया ऐसा नेत्र सो रूपका साक्षात् करनेवाला होय, सो इहां तिसके ग्रहणरूप स्वभावपणांके होते प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययस्वरूप विवादमैं आया कोई पुरुष है । ऐसैं च्यार प्रयोगका अनुमानकरि सर्वज्ञका सद्भाव मीमांसककू आ. चार्य- बताया । बहुरि सकल पदार्थनिका ग्रहणस्वभावपणां कह्या सो आत्माकै असिद्ध नाही है जातें आत्माका ऐसा स्वभाव न मानिये तौ वेदतै सकलपदार्थका ज्ञान होय ऐसे कहनेका अयोग आवै है, जैसैं आंधे पुरुषकै आरसेसूं रूपकी प्रतीतिका अयोग होय तैसें । बहुरि व्याप्तिज्ञानकी उत्पत्तिके बलौं समस्तपदार्थसंबंधी परोक्षज्ञानका संभव मानिये ही है, इहां केवल एक ज्ञानकै विशदपणां जो स्पष्टपणां-प्रत्यक्षपणां ताही विर्षे विवाद है । तहां आवरणाका दूर होनां ही कारण है, जैसैं धूलिते आवरण तथा बरफका आवरण कोई पदार्थकै होय सो आवरण दूर होय तब पदार्थ स्पष्ट दीखै तैसें ज्ञानकै कर्मका आवरण दूर होय तब ज्ञान स्पष्ट प्रगटै है । बहुरि पूछ है-जो प्रक्षीणप्रतिबं