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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
भये तब हेतुका उदय नाही होय है । अर कहै ऐसे हेतुकै विपक्षवि. बाधकप्रमाणका अभाव है अर पक्षमै व्यापकपणां है तातै दोष नाही अन्वयवान्पणां है तो हमारा भी हेतु ऐसा ही है, याकै वाकै समानता भई तब दोष काहेका है ॥ ३ ॥
आणु प्रत्यक्ष विशद ज्ञानकू कह्या सो विशदपणांका स्वरूप कहै
प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासन वैशद्यम् ॥ ४॥
याका अर्थ---जो अन्यप्रतीति बीचिमैं न आवै आप ही जानैं अर विषयकू विशेषनिसहितपणांकरि जानै सो विशदपणां है । तहां एक प्रतितितें दूसरी अन्य प्रतीति होय सो प्रतीत्यंतर कहिये तिसकरि जाकै अव्यवधान होय—बीचिमैं अन्यप्रतीति न आवै, तिस अव्यवधानकरि जो प्रतिभासनां सो वैशद्य कहिये । इहां जो अवायज्ञानकै अवग्रह ईहा प्रतीतिकरि व्यवधान है, अवायकै पहली अवग्रह ईहाकी प्रतीति होह है तौऊ तिस अवायज्ञानकै परोक्षपणां नांही है जाते इहां विषय जो पदार्थ अर विषयी जो विषयका जाननेवाला ज्ञान ताके भेदकरि प्रतीति नांही है । जहां विषयविषयीके भेद होतें व्यवधान होय तहां परोक्षपणां होय है । इहां जो अवग्रहका विषय है ताकी तिस ही कार प्रतीति है, ईहाका विषय है ताकी तिस ही करि प्रतीति है, अवायका विषय है ताकी तिस ही करि प्रतीति है; परंतु ये सारे प्रत्यक्ष ही हैं अर इनिका विषय प्रत्यक्ष ही है, प्रतीत्यन्तर न कहिये । यातें ऐसा नाही जो जो जाका विषय है ताकी प्रतीति पहले अन्यकी प्रतीति बीचिमैं आवै तब होय । बहुरि कोई कहे जो ऐसे है तौ पहिले अग्निका अनुमान भया होय पी, सो ही पुरुष अग्निकू देखै तब अग्निका देखनांकै परोक्ष