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५२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितजो अर्थ आलोक होतें तौ ज्ञान उपजै अर नाही होते न उपजै जैसैं केशनिका गुच्छाका ज्ञान होय है। काहूकै मांछरनिका समूह मस्तकपरि उडै था सो काहूकू केशनिकां झूमका दीख्या ऐसैं तौ अर्थ ज्ञानका कारण नाही है अर अंधकारमैं विलाव आदिकू दीखै है तातें प्रकाश ज्ञानका कारण नाही । इहां कारणकार्यकै व्याप्तिका प्रयोग करै हैजो जाकै अन्वय-व्यतिरेकका जोड़ न करै सो तिसका कार्य नाही जैसैं केशनिका झूमकाका ज्ञान, सो ज्ञान अर्थका अन्वय-व्यतिरेकपणां नाही करै है अर्थ तौ मांछरनिका समूह था अर ज्ञान केशनिका झूमकाका भया। तैसैं ही आलोक जो प्रकाश है, तहां यह विशेष है जो नक्तंचरका दृष्टान्त है ते नक्तंचर विलाव आदि हैं तिनिकू अंधारेमैं दीखै है जो प्रकाश ही ज्ञानका कारण होय तो तिनिकू अंधकारमैं ज्ञान कैसैं होय ॥७॥ __ इहां बौद्धमती तर्क करै है:-जो विज्ञान है सो अर्थ करि उपजै अर्थकै आकार होय सो अर्थका ग्राहक होय, ज्ञानकी अर्थतें उत्पत्ति न मानिये तो विषय प्रति नियमका अयोग ठहरै-घटके ज्ञानका घट ही विषय ऐसा नियम न ठहरै । बहुरि अर्थतें उपजना है सो आलोक जो प्रकाश तामैं अविशिष्ट है तातें 'ताद्रूप्य ' कहिये तदाकार होनां तिससहित ही जो ' तदुत्पत्ति' कहिये अर्थतें ज्ञानका उपजनां ताकै विषय प्रति नियमरूप हेतुपणां है। ज्ञान ज्ञेयका भिन्न काल है तौऊ ग्राह्य ग्राहकभावका अविरोध है, तैसे ही हमारै कह्या है, इहां श्लोक है ताका अर्थ-कोई पूछे जो जाका भिन्नकाल होय सो ग्राह्य कैसैं होय तौ ताकू कहै है-जे युक्तिके जाननेवाले हैं ते ऐसैं कहैं हैं१ तथा चोक्तम्
भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिशास्तदाकारार्पणक्षमम् ॥१॥