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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनिन्द्रिय कहिये मन ये दोऊ हैं निमित्त कहिये कारण जाकू । सो इ. न्द्रिय मन समस्त भी कारण हैं अर व्यस्त कहिये न्यारे न्यारे भी कारण हैं । तहां इन्द्रियनिके प्रधानपणांतें मनके सहायतै उपजै सो तौ इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, बहुरि कर्मके क्षयोपशमतें विशुद्धि होय ताकी अपेक्षासहित जो मन तिसहीतैं उपजै सो अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। तहां इन्द्रिय प्रत्यक्ष है सो अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणाभेदतै च्यार प्रकार है सो भी बहु, अबहु, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत, निसृत, अनुक्त, उक्त, ध्रुव, अध्रुव, इनि बारह विषयनिके भेदनिकरि अड़तालीस भेद होय हैं, ते पांचूं इन्द्रिय प्रति होय हैं सो दोयसै चालीस होय । ऐसे ही मनके प्रत्यक्षके अड़तालीस मिलाये दोयसै अठ्यासी भेद होय हैं, सो ये तो अर्थकी अपेक्षा भये । बहुरि व्यंजन विषयका अवग्रह ही होय है सो मन अर नेत्र द्वारै नांही होय ता” च्यार इन्द्रियनिकै द्वारै बहु आदि बारह विषयका अवग्रह होय ताके अड़तालीस भेद होय । सर्व भेले किये इन्द्रिय अनिन्द्रिय प्रत्यक्षके तीनसै छत्तीस भेद होय हैं।
इहां प्रश्न-जो स्वसंवेदननाम प्रत्यक्ष अन्य है सो क्यों न कह्या ? ताका समाधान-ऐसैं न कहनां जातै सो संवेदन सुख ज्ञान आदिका अनुभवनस्वरूप है सो मानसप्रत्यक्षमैं आय गया अर इन्द्रियज्ञानका स्वरूपका संवेदन सो इन्द्रियप्रत्यक्षमैं आय गया । जो ऐसे न मानिये तौ तिस ज्ञानकै अपने स्वरूपका निश्चय करनेका अयोग आवै है। बहुरि स्मरण आदिका स्वरूपका संवेदन है सो मानसप्रत्यक्ष ही है अन्य नांही है सो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहिये ही है, परन्तु जुदा भेद नाही ॥५॥ ___ आरौं नैयायिक कहै है-जो प्रत्यक्षका उत्पादक कारण कहता जो ग्रंथकार इन्द्रियादिककू कारण कहे तैसें ही अर्थ अर आलोककू कारण