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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला |
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अविनाभूत जो लिंग ताकरि संभावित जो वस्तु ताकूं ग्रहण करै है याका यहु विषय है, पूर्व - उत्तर पर्यायव्यापी जो एकपणां सो प्रत्यक्ष अनुमानका विषय नांही । बहुरि प्रत्यभिज्ञान है सो स्मरणविषै भी अन्तर्भूत नही है जातैं पूर्व - उत्तरका एकपणां स्मरणका भी विषय नही है | बहुरि इहां कोई कहै जो संस्कार अर स्मरणका सहायकरि ये इंद्रिय हैं ते ही प्रत्यभिज्ञानकूं उपजावै हैं सो जो इन्द्रियतैं उपजै सो प्रत्यक्ष ही है तातैं प्रत्यभिज्ञान न्यारा प्रमाण नांही ? ताकूं आचार्य कहै है; — जो ऐसी कहनेवाला तौ अतिमूर्ख ही है जातैं अपनें विषयकूं मुख्यकरि प्रवर्त्तता जो इन्द्रिय ताकैं सैंकडां सहकारी सहाय मिलै तोऊ अन्यके विषयविषै प्रवर्त्तनेंरूप जो अतिशय ताका अयोग हैं, इन्द्रिय अपनें अपनें विषै ही प्रवर्तें हैं । अर यह अतीत वर्त्तमान अवस्थाविषै व्यापी जो एक द्रव्य सो इन्द्रियनिका विषय नांही, अन्य ही है । इन्द्रियनिका विषय तौ रूप ही है ये तावन्मात्र ही विषयविषै चरितार्थ हैं । बहुरि अदृष्ट जो पुण्यपापकर्म तिसके सहकारीपणांकी अपेक्षा स्वरूप होयकरि भी इन्द्रिय इस पूर्वापर अवस्थाका एकत्वविषै नांही प्रवर्त्ते हैं तहां भी पूर्वोक्त दोष ही आवै है, सहकारीके बलतैं इन्द्रिय अपने विषय सिवाय प्रवर्तें नांही ।
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बहुरि विशेष कहै है; —– जो अदृष्ट कहिये पूर्वकृत कर्म अर धारणाज्ञानरूप संस्कार आदिकी अपेक्षात प्रत्यक्षकै एकत्व विषयविषै प्रवर्तना कह्या तौ ऐसैं प्रवर्तनां आत्माहीकै तिस एकत्वका विज्ञान क्यों न कल्पिये जातैं देखिये है जो स्वप्न सारस्वत चाण्डालिक आदि विद्याके संस्कारर्तै आत्माकै विशिष्ट ज्ञानकी उत्पत्ति होय है । तहां अतीत अनागत वर्तमानके लाभ अलाभकी सूचना जातैं होय सो स्वप्नविद्या है । बहुरि अन्यतैं ऐसा न बणै ऐसा वादीपणां कवीश्वरपणां आदिकी कर