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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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करि कहै इसकूं मैं धन सौंप्या था सो यह प्रत्यभिज्ञान होय तब सौंप्या धन मांगै है सो स्मृतिकूं प्रमाणभूत न मानिये तौ देनें लेनेंका व्यवहार नांहीं होय । बहुरि वह कहै जो स्मृति तौ अनुभवन किये वस्तुविषै होय है सो जिसकाल स्मृति होय तिस काल अनुभूयमान जो वस्तु जावि स्मृति भई सो वस्तु विद्यमान नांही तातैं विषयरहित जो स्मृति सो तौ प्रमाणभूत नांही । ताकूं कहिये –— जो ऐसैं नांही, जो तिस काल विषय विद्यमान नांही है तोऊ अनुभवन किया था जो वस्तु तिसका आलंबन स्मृति भई तातैं निरालंब नांही, निरालंब तौ जब होय जो अकस्मात् विना अनुभूत वस्तुविषै स्मृति होय सो ऐसें होय नांही । अर ऐसैं अनुभूत वस्तुविषै स्मृति होतैं भी निरालंबन कहिये अर अप्रमाण कहिये तौ प्रत्यक्षकै भी अनुभूत वस्तुविषै अप्रमाणपणां ठहरै | बौद्धमती प्रत्यक्षकूं अतीतपदार्थविषयरूप कहै है तातें स्मृति अतीतानुभूतार्थविषयतैं अप्रमाण कहैगा तौ प्रत्यक्ष भी ऐसा न ठहरैगा ऐसैं का है । अथवा अनुमानकरि पहिले अग्निका निश्चय भया पीछें ताविषै प्रत्यक्ष प्रवर्त्या सो ऐसा प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरैगा । अर अपना जो विषय है ताका प्रतिभासनां प्रमाण कहिये तो अपनां विषयका प्रतिभासनां तौ स्मरणविषै भी है ही याकूं अप्रमाण कैसैं कहिये ।
बहुरि विशेष कहैं हैं; — जो स्मृतिकूं अप्रमाण कहिये तौ अनुमानकै प्रमाणपणांकी वार्त्ता भी कहनां दुर्लभ होय है जातैं स्मृतिकरि व्याप्तिकूं याद किये अनुमान होय है, विना स्मृति व्याप्तिका स्मरण नांही तब अनुमानका उत्थान काहेतैं होय । तातैं यह कहनां जो स्मृतिकै प्रमाणता है जातैं अनुमानकै प्रमाणपणांकी याही तैं प्राप्ति है यहु न होय तौ अनुमानकै प्रमाणपणांकी प्राप्ति नांही है । ऐसें यहु स्मृति सो बौद्धमतीकै मान्यां जो प्रत्यक्ष अनुमानरूप प्रमाणकै दोयप