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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
है जैसैं प्रत्यक्ष देख्या जल होय तैसैं यहु है ऐसैं अनुमानज्ञानतें तथा जलकी अर्थक्रियाका ज्ञानतें पहले जलका ज्ञान हुवा था तैसी ही ताक प्रमाणता कहिये यथार्थपणां सो बहुतकालपर्यन्त कल्पिये ही है जाते पहले अनुमानप्रमाणकै स्वतः सिद्ध प्रामाण्य भया तिसतैं इस जलज्ञानकै प्रमाणता भई तातै पहले अनभ्यस्तमैं परतें प्रमाणता कहिये । बहुरि मीमांसक कह्या था जो प्रामाण्यके ग्रहणके उत्तरकालमैं उत्पत्ति अवस्था" जाननेमैं किछू विशेष नाही भासै है जो प्रमाण उपजतैं जैसा था जैसा ही पीछे है। ताका उत्तर-जो अभ्यस्तविषयविषै विशेष न भासता कहै तौ यह तो हम भी मानें हैं जातें तहां पहले निःसन्देह विषयका जाननेका विशेषका अंगीकार है । बहुरि अनभ्यस्तविषयविर्षे कहै तौ जाननेंमैं विशेष है ही, प्रामाण्य ग्रहणके उत्तरकालमैं विषयका अवधारण कहिये नियमरूप स्वभाव लिये प्रतिभास भया, यह ही विशेष प्रतिभास भया । बहुरि मीमांसक कहै है---जो प्रामाण्यकै अरु जाननक्रियाकै तौ अभेदभाव है इनिमैं पहली पी3 होनां कैसैं वर्णै ? ताकू कहिये है;-जो ऐसैं नाही है जातै सर्व ही जाननेकी क्रिया प्रमाणस्वरूप नाही है अर प्रामाण्य है सो जाननक्रियास्वरूप है ही, ताक् कथंचित् भेद भया, तातै दोष नाही । बहुरि मीमांसकनैं कह्या जो बाधक अर कारण दोषका ज्ञान इनि दोऊनिकरि प्रमाण्यका निराकरण होय है सो यह कहनां भी निष्फल है जातें अप्रामाण्यविौं भी ऐसैं कह्या जाय है. सो ही कहिये है-पहले तो ज्ञान अप्रमाणरूप ही उपजै है पी, बाधारहित ज्ञान अर गुणका ज्ञान होय ताकै उत्तरकालविर्षे तिस अप्रमाणरूप ज्ञानका निराकरण होय है । तातें यह निश्चय भया जो प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य अपने कार्यविौं कोई जायगां आभ्यासकी अपेक्षा स्वतें होय है कोई जायगां अनभ्यासकी अपेक्षा परतें होय है सो ऐसे ही निर्णय करना योग्य है।