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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
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तौ हेतुकै अविनाभावकरि रहितपणां है सो भी स्वरूपकी विकलता ही है दोष नांही है ऐसें गुणका निषेध तैसैं ही दोषका निषेध दोऊ समान भये । बहुरि कहै जो स्वरूपकी विकलता है सो ही दोष है तौ लिंगकै - तथा नेत्रादिककै तिसका स्वरूपका सकलपणां है सो ही गुण है ऐसैं क्यों न कहिये ? ऐसैं ही आप्तके कहे शब्द विषै भी मोह, राग, द्वेष आदि लक्षण दोषका अभाव सो ही यथार्थज्ञानादिलक्षण गुणका सद्भाव अंगीकार करता मीमांसक अन्य प्रमाणवि ऐसैं न मानें सो उन्मत्त कैसैं नांही ? उन्मत्त ही है ।
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बहुरि मीमांसकनैं कह्या जो शब्द विषै गुण तौ है परन्तु प्रमाणकी उत्पत्तिविषै ते व्यापार नांही करें हैं, दोषका अभाव है सो ही प्रमाणकी उत्पत्तिविषै व्यापार करे है । सो यह कह्या तौ सत्य परंतु युक्त नांही, जातें कहने मात्र ही करि साध्यकी सिद्धिका अयोग है जातें गुणनितें दोषनिका अभाव है । ऐसैं कहनें विषै तौ अज्ञान ही कारण है अन्य किछू नांही है, भावार्थ — यह भूलि करि कहै है । फेरि मीमांसक कहै है; — जो अनुमानविषै तीनरूप सहित जो लिंग तिस हीमात्र करि उपजी प्रामाण्यकी उपलब्धि होय है सो ही तहां हेतु है । ताकूं कहिये ऐसें नांही है याका उत्तर तौ पहले दिया था तहां तीनरूप पप्पां है सो ही गुण है, जैसें तिसकी विकलता कहिये तीनरूपपणांसूं रहित सो ही दोष है, ऐसें हेतु है सो भलै प्रकार मान्यां हूवा है । ऐसें ही अप्रामाण्यविषै भी कहा जाय है तहां दोषनि तैं गुणनिका अभाव है तिनिके अभाव प्रमाणपणांका अभाव होतैं अप्रमाणपणां स्वाभाविक तिष्ठै ही है । ऐसैं अप्रामाण्य स्वतैं ही आवै है ताका भिन्न कारण उपजनेका वर्णन उन्मत्तभाषित ही ठहरे है । भावार्थ — जो मीमांसक प्रामाण्य तौ स्वतैं है है अर अप्रामाण्य परतें कहै है सो इहां दोऊ ही स्वतैं होय
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