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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
बहुरि ऐसे अप्रमाणपणांविषै नांही है अप्रमाणपणां पर ही होय है, जारौं विज्ञानके कारणनै भिन्न जो दोषस्वभावरूप सामग्री ताकी अपेक्षा सहितकरि अप्रमाणपणां उपजै है । बहुरि अप्रमाणताकी निवृत्तिस्वरूप जो अप्रमाणका कार्य तावि. अपनां अप्रमाणतारूप स्वरूपका ग्रहणकी सापेक्षा है ही सो जैसे अपनी अप्रमाणताकू न जाणौं तेतें अपना अन्यथापणांरूप जो विषय तातै पुरुषकू नहीं निवृत्तिरूप करै है, अप्रमाणताकू जाणें तबही विषयका अन्यथापणां जाणि छोडै, ऐसैं मीमांसक स्वतः प्रमाणकी पक्षकू दृढ किया।
अब याका निराकरण आचार्य करै है;--जो यह मीमांसकनैं कह्या सो सर्वही बड़े अज्ञानरूप अन्धकारका विलास है, सो ही कहिये हैप्रथम तौ प्रामाण्यकी उत्पत्तिविषै अन्य सामग्रीकी अपेक्षापणां असिद्ध कह्या सो असिद्ध नांही है, आगमके आप्तका कह्यापणांरूप जो गुण ताका संनिधान होतें संतॆ ही आप्तप्रणीत वचन विर्षे प्रमाणता देखिये है, जातें जिसके अभावतें तौ अनुत्पत्ति अर जिसके सद्भावनै उत्पत्ति होय सो तिसका कारण होय है ऐसा लोकमैं प्रसिद्ध है सो आगमकी प्रमाणता सत्यार्थ आप्त होतें होय है न होते नाही होय है, सो जो मीमांसक. कह्या जो विधिकी मुख्यताकरि तथा कार्यकी मुख्यताकरि गुणनिकी प्रतीति नहीं है, तहां प्रथम तो आप्तके कहे शब्दविर्षे गुणनिकी प्रतीति नांही है ऐसा कहनां अयुक्त है जातें ऐसे होय तौ आप्तके कहेपणेंकी हानिका प्रसंग आवै है, अनाप्तका वचनकै समान ठहरै है, अर जो कहै नेत्र आदिकै वि गुणनिकी अप्रतीति है तौ सो भी अयुक्त है, नेत्रनिके निर्मलपणां आदि गुण है ते स्त्री बालक गुवाल सर्वके प्रसिद्ध हैं—सर्व जानै है, जो ये नेत्र निर्मल है ये निर्मल नाही है । बहुरि जो कहै निर्मलपणां तौ नेत्रका स्वरूप ही है गुण नांही है.