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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
ऐसा जाननां । जो ऐसैं न मानिये तो अप्रामाणिकपणां कहिये अपरीक्षकपणांका प्रसंग आवै है ॥ ११ ॥ आगैं इहां इसका उदाहरण कहै हैं;
प्रदीपवत् ॥ १२ ॥ याका अर्थ-जैसैं दीपककै प्रत्यक्षता अर प्रकाशता विना तिसकरि भासे जे घटादिक पदार्थ तिनिकै प्रकाशता प्रत्यक्षता न वणै तैसैं प्रमाणस्वरूप ज्ञानकै भी जो प्रत्यक्षता न होय तौ तिसकरि प्रतिभास्या अर्थक भी प्रत्यक्षता न वणै । इहां तात्पर्य कहै है—ताका प्रयोग-ज्ञान है सो अपने प्रतिभास करनें विआपतै अन्य जो समानजातीय अन्य अर्थ तिसकी अपेक्षा न चाहै है यह तौ धर्मिसाध्यका समुदायरूप पक्षका वचन सो प्रतिज्ञा है। प्रत्यक्ष पदार्थका गुण होते अदृष्ट जो शक्ति ताकी व्यक्तिरूप अनुयायिकरणपणांतें यहु हेतु है । बहुरि प्रदीपभासुराकारवत् यह उदाहरण है । इहां भावार्थ ऐसा-जो ज्ञान अपने जाननें विषै अन्यज्ञानकी अपेक्षा न करै है आप ही आपकू जानैं है जाते ज्ञान आत्मा ही का गुण है सो जाननेकी शक्तिकी व्यक्तिरूप करण अवस्थाकू प्राप्त होय है । आपकी प्रमिति प्रति आपही करण है जैसैं दीपककी प्रकाशरूप लोय है सो आपके प्रकाशनेमें अन्य लोयकी अपेक्षा नाही करै है, आप ही आपकू प्रकाशै है, ऐसें जाननां ॥१२॥ __ आरौं कोई आशंका करै है जो प्रमाणका लक्षण कह्या सो ऐसा तौ होहु तथापि इस प्रमाणकी प्रमाणता ' स्वतः' कहिये आपही” होय है कि 'परतः' कहिये अन्यतै होय है ? जो स्वतः ही कहोगे तो अविप्रतिपत्ति होयगी आप अन्यथा भी ग्रहण करै ताका निषेध काहेरौं होयगा ? बहुरि परतें कहोगे तो अनवस्थानामा दूषण आवैगा जातें