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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
बहुरि अव्याप्त अतिव्याप्त असंभवि ये तीन लक्षणाभास कहे । तिनिका स्वरूप ऐसा-जो लक्ष्य काहू वस्तुकू स्थापि ताका लक्षण करिये सो जो लक्षण लक्ष्यके सर्वविशेषभेदनिमैं न व्यापै कोईमैं होय कोई विशेषमैं न होय सो लक्षण अव्याप्तस्वरूप है । बहुरि जो लक्षण लक्ष्य स्थाप्या तामैं भी होय अरु जो लक्ष्य नाही तामैं भी होय सो अतिव्याप्त है । बहुरि जो लक्ष्य स्थाप्या तामैं नांही संभवै सो असंभवि है। सो इहां प्रमाण तो लक्ष्य है अर स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान लक्षण है, सो ज्ञान ऐसा कहनेमैं तौ सम्यग्ज्ञानके पांच भेद हैं ते परोक्ष प्रत्यक्ष प्रमाणके भेद हैं तिनिमैं सर्वमैं पाइए है तातें अव्याप्त लक्षण नाही । बहुरि व्यवसायात्मकविशेषण" संशयादिक अप्रमाण ज्ञान हैं तिनिमैं व्यवसाय कहिये यथार्थ निश्चयस्वरूपपणां नाही तातै तिनिमैं व्यापै नांही तातें अतिव्याप्त नाही । बहुरि स्वविशेषण" असंभव दोष भी नाही है जो आपकू न जानैं सो परकू भी न जानैं ऐसा असंभवदोष यामैं नाही । ऐसे त्रिदोषरहित लक्षण जाननां । जो लक्ष्य अप्रसिद्ध होय ताका प्रसिद्ध चिह्न होय सो लक्षण होय है ॥ १॥ ___ आगैं अब अपना कह्या जो प्रमाणका लक्षण ताका ज्ञान ऐसा विशेषण किया, ताकू समर्थनरूप दृढ करते संते आचार्य सूत्र कहैं
हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥२॥ ___ याका अर्थ-हि कहिये जातें हितकी प्राप्ति अहितका परिहार विौं समर्थ प्रमाण है तातें ऐसा ज्ञानही है । अज्ञानरूप सन्निकर्षादिकवि यह सामर्थ्य नाही । तहां हित तौ सुख है जाते सर्व प्राणी सुखहीकू चाहें हैं, बहुरि सुखका कारण है सो भी हित ही है । बहुरि