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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। एकठे तौ रहैं परन्तु स्वरूप मिलै नांही जैसैं रूपगुण अर रसगुण, एक वस्तुमैं रहै स्वरूप जुदा जुदा है ही । तीसरा वध्यघातकलक्षण, परस्पर घातकरै जैसैं सर्पकै अरु न्योलाकै वैर होय । सो इहां समारोपकै अरु यथार्थनिश्चयात्मककै सहानवस्थानलक्षण विरोध है, यथार्थ निश्चय होय तहां समारोप संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहै नांही ॥ ३ ॥ ____ आगैं अब प्रमाणका लक्षणमैं अपूर्व विशेषणसहित अर्थका ग्रहण है ताकू समर्थन करि दृढ़ करता संता—तिसकू स्पष्ट करता संता सूत्र कहैं है;
अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ ___ याका अर्थ-जाका पूर्वं निश्चय न भया होय ऐसा वस्तु अपूर्वार्थ है। तहां जो अन्य प्रमाणकरि संशयादिकका व्यवच्छेद करि निश्चय न किया ऐसा जो अर्थ कहिये वस्तु सो अपूर्वार्थ है । ऐसा कहने करि ईहा ज्ञानका विषय वस्तुकू पहिले अवग्रहादिक करि ग्रहण किया ताकै गृहीतग्राहीपणां होतें भी पूर्वार्थपणां नांही है, जातें ईहादिक ज्ञानका विषयभूत वस्तु अवग्रहके ग्रहे पीछे जो अवान्तरॅविशेष कहिये अन्यावशेष सो अवग्रहादिकरि निश्चय नाही होय है तातै पूर्वार्थ नाही है, अपूर्वार्थ ही है ॥ ४ ॥ ___ आगैं कहै हैं, जो अपूर्वार्थ कह्या सो याही प्रकार है कि कोई अन्य भी प्रकार है ऐसैं पू. सूत्र कहै हैं;
दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥५॥ याका अर्थ-जो वस्तु पूर्वै देख्या होय-प्रमाण निश्चय किया होय पी2 ताविर्षे संशयादिक जो समारोप सो होय जाय तौ वस्तु 'तादृक्' कहिये विना निश्चय कीया समान है-अर्वार्थ है । तहां 'दृष्टोऽपि'