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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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कहौ हौ ? हमारै तौ अनुमान प्रमाणकै तौ व्यवसायात्मकपणांकरि प्रमाणपणांका अंगीकार है, बहुरि प्रत्यक्षप्रमाणकै तौ निर्विकल्पणां होते ही सत्यार्थपणांत प्रमाणपणां वर्ण है, ऐसैं बौद्ध कहै ताके समाधानकै अर्थि सूत्र कहैं हैं;
तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥
याका अर्थ-तत् कहिये प्रमाणस्वरूप कह्या जो ज्ञान सो निश्चयात्मक कहिये निश्चयस्वरूप है, काहे तैं ? जातें समारोप कहिये संशयादिक तिनित विरुद्ध है यथार्थ है, जैसे अनुमान है तैसैं । इहां याका प्रयोग ऐसैं–तत् कहिये सो प्रमाणपणांकरि मान्यां वस्तु यह तौ धर्मी भया, बहुरि यह निश्चयात्मक कहिये व्यवसायस्वरूप है यहु साध्य है, दोऊ मिल्या हुवा पक्ष है, याका वचनकू प्रतिज्ञा कहिये । बहुरि समारोपविरुद्धपणांतँ यह हेतु है, इहां समारोप नाम संशयादिकका है। बहुरि अनुमानवत् यहु दृष्टांतका वचन सो उदाहरण है । इहां यहु अभिप्राय है जो संशय विपर्यय अनध्यवसाय स्वभाव जो समारोप जिसका विरोधी जो वस्तुका ग्रहण कहिये जाननां सो है लक्षण जाका ऐसा व्यवसायस्वरूपपणांकू होते ही अविसंवादी पणां कहिये बाधारहित सत्यार्थपणां सो वणै है, बहुरि जो अविसंवादी पणां है सो ही प्रमाणपणां है । ऐसें बौद्धमतीनैं मान्यां जो च्यारि प्रकारका प्रत्यक्षप्रमाण ताकै प्रमाणपणांकू अंगीकार करनेका इच्छुक है तौ समारोपका विरोधी जो ग्रहण—जाननां सो है लक्षण जाका ऐसा निश्चयात्मक ज्ञानकू ही प्रमाण माननां योग्य है।
इहां बौद्धमती कहै है जो समारोपका विरोधी अरु व्यवसायात्मक ये दोऊ रूप तौ एक ज्ञानहींके भये तहां साध्यसाधनभाव एक ज्ञानहीकै
हि. प्र. २